बुधवार, 28 दिसंबर 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है






सवा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी कांग्रेस पार्टी में भले ही, पिछले लगभग ढाई दशक से मौनी बाबाओं की तूती बोल रही हो, लेकिन मजेदार यह कि इन बाबाओं ने अपने पूरे राजनीतिक करियर में सबसे ज्यादा कोताही बोलने में ही बरती। 1991 से शुरू हुआ यह सिलसिला 2016 खत्म होने तक बदस्तूर जारी है। इस दौरान, कोई मुंह बंद कर मौनी बाबा बन गया तो कोई मुंह खोलकर राहुल बाबा। रह-रह कर मुंह खोलने और बचकानी बाते करने की मानो कसम खा चुके कांग्रेस के राजकुंवर को लोग शायद इसी वजह से पप्पू पुकारते हैं।

साल 1991 में ऐन आमचुनावों के बीच राजीव गांधी की हत्या के बाद, प्रधानमंत्री बने नरसिंह राव को देश वैसे तो कई वजहों से याद करता है, लेकिन आज भी उनको लेकर जेहन में जो तस्वीर उभरती है, वह मौनी बाबा की ही है। मौनी बाबा ने बतौर प्रधानमंत्री बेशक मुंह नहीं खोला, लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें याद करने की कोई और वजह नहीं। 1991 के आमचुनावों में कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। बावजूद इसके, मौनी बाबा ने, महज जोड़-तोड़ की बाजीगरी के बूते पूरे पांच साल बेलौस-बेखौफ राज किया। बाबा का मौन तो उस समय भी नहीं टूटा, जब भगवा ब्रिगेड पूरे जतन से अयोध्या में ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर रहा था। यह दीगर बात है कि कई भाषाओं के जानकार मौनी बाबा को देश की आर्थिक आजादी का मसीहा कहा जाता है। आज भी देश में जब कभी आर्थिक उदारीकरण की बात होती है, मौनी बाबा याद किए जाते हैं।

तकरीबन एक दशक बाद, 2004 में कांग्रेस को देश की कमान संभालने का एक बार फिर जनादेश मिला। उस वक्त कोई भी कांग्रेसी मौनी बाबा का नाम जुबान पर नहीं लाना चाहता था, पर उन्हीं मौनी बाबा की देन मनमोहन सिंह को कांग्रेस ने मौके की नजाकत भांपते हुए सिर-आंखों पर बिठाया। आज्ञाकारी बालक की तरह मनमोहन सिंह ने भी बड़की अम्मा की हर बात में हां मिलाई। अपने ज्ञान से दुनिया भर के अर्थविज्ञानियों का मन मोहने वाले सरदार बहादुर को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद मौन मोहन बनने तक का सफर तय करने में कोई पांच साल का वक्त लगा। उसके बाद तो लोग उन्हें मनमोहन की मौन मोहन कहकर ही पुकारने लगे।

पांच साल बाद यूपीए-2 के दौरान देश में घोटाले दर घोटाले होते रहे, पर मौन मोहन दम साधे रहे। कभी कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला चर्चा में रहा, तो कभी टू जी घोटाला मीडिया की सुर्खियां बना। अलबत्ता, कोयला आवंटन के मुद्दे पर जब विपक्ष मे उन्हें कटहरे में खड़ा किया तब जरूर उन्होंने उर्दू के एक लाजवाब शेर के साथ अपनी चुप्पी तोड़ी;
"हज़ारों जवाबों से अच्छी है ख़ामोशी मेरी,
न जाने कितने सवालों की आबरू रखे."।
यानी यहां भी वह उन्होंने अपनी खामोशी को वाजिब ठहराया। यूपीए-2 के दौरान पूरे पांच साल तक राजनीतिक हलकों में मौन मोहन की खूब खिल्ली उड़ी, पर सियासी विरोधियों पर शब्द बाण चलाने का कोई भी वाकया खोजे नहीं मिलता। ऐसे में मौन मोहन को देश का सबसे चुप्पा प्रधानमंत्री कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। शायद यही वजह थी कि 2014 के आमचुनावों में जब कांग्रेस 50 का आंकड़ा भी नहीं पार कर पाई, तो राजनीतिक पंडितों को यह लिखते-कहते देखा-सुना गया कि मौन मोहन ने बहुत शालीन और चुप-चाप तरीके से कांग्रेस के साथ 1984 के सिख दंगों का हिसाब चुकता कर लिया। उन्होंने पार्टी को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि उसके किसी सांसद को नेता विपक्ष का पद तक मिले।
दोनों मौन ब्रतियों के राजनीतिक अवसान (एक का निधन और एक राज्यसभा में महज सांसद) के बाद कांग्रेस पार्टी में राहुल बाबा का उदय हुआ। अब इसे संयोग कहिए या कुछ और, राहुल बाबा भी कमोबेश मौन मूर्तियों की राह पर बढ़ चले हैं। अव्वल तो वह बोलते नहीं और जब कभी मुंह खोलते हैं, तो अपनी ही पार्टी के लोगों की बोलती बंद करा देते हैं।
अभी पिछले दिनों राहुल बाबा ने सड़क पर ऐलान किया कि अगर संसद में उन्होंने मुंह खोला तो देश में भूकंप आ जाएगा। सारा देश रिक्टर स्केल पर उस भूकंप की तीव्रता नापने के लिए तैयार बैठा था, पर बुरा हो संसद सत्र का, जिसमें उन्हें बोलने का मौका नहीं मिला। लोगों के भूकंप की तीव्रता नापने के अरमान धरे रह गए। लेकिन एक तरह से यह अच्छा ही हुआ क्योंकि अगर भूकंप आता तो एक बार फिर देश के आपदा प्रबंधन विभाग की पोल खुलती। भारी जन-धन की हानि होती सो अलग।
हालांकि जल्दी ही वह दिन भी आ गया, जब राहुल बाबा को मुंह खोलने का मौका मिल गया। संसद न सही, नरेंद्र मोदी का गढ़ माना जाना वाला गुजरात का मेहसाणा ही सही। वहां जनसभा में मौजूद लोगों को राहुल बाबा आयकर विभाग के कुछ दस्तावेज दिखाते हुए बोले-छह महीने में सहारा ने मोदी को नौ बार पैसे दिए। इसका सारा ब्योरा सहारा वालों की डायरी में दर्ज है। पर मेहसाणा की जनता को कौन कहे, देश के बहुतायत लोगों को उनकी बात में कुछ भी नया नजर नहीं आया। शायद इसकी एकमात्र वजह यह थी कि वह भूकंप लाने वाले जिस खुलासे का दावा ठोक रहे थे, वह पिछले एक महीने से मीडिया में है।
यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी इस मामले में एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई हो चुकी है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस मामले में दो टूक टिप्पणी की कि फिलहाल जो सबूत हैं, उनके आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यानी राहुल बाबा का भूकंप का दावा महज हवा हवाई साबित हुआ। शायद इसी बहाने उन्हें संसद में बोलने की अहमियत का अंदाजा लग गया हो।
कभी खून की दलाली का बेतुका जुमला, कभी अपने भाषण से भूंकप लाने की गीदड़ भभकी और कभी मोदी के भ्रष्टाचार की जानकारी का सबूत होने का दावा, राहुल बाबा के इस तरह बयान कहीं न कहीं इस धारणा को मजबूत करते हैं कि वह बिना कुछ सोचे समझे बोलते हैं और तो और, उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं रहती कि मुंह खोलेंगे तो खुद उनका ही माखौल उड़ेगा। इससे तो बेहतर यही होता कि वह पिछले करीब ढाई दशक से चली आ रही मौन मूर्तियों की परंपरा को और आगे बढ़ाते या नई ऊंचाई पर पहुंचाते।
साल 1974 में एक अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी और प्राण अभिनीत एक फिल्म आई थी, कसौटी। बाक्स आफिस की कसौटी पर न सिर्फ वह फिल्म खरी उतरी, बल्कि उस एक गाना-हम बोलेगा तो बोलेगो कि बोलता है-भी सुपर हिट हुआ था। अब राहुल बाबा के शानदार प्रदर्शन के आधार पर लोग उन्हें पप्पू बोलें, तो उसमें गलत क्या। दुनिया चाहे कुछ भी बोले, हम कुछ नहीं बोलेंगे, क्योंकि हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है...................

रविवार, 11 सितंबर 2016

राजकुमार की पीके और युवराज के पीके

सन् 2014 को पीके का साल कहें, तो कुछ गलत नहीं होगा। उस साल राजकुमार (हिरानी) निर्देशित पीके ने सिने जगत में कामयाबी का झंडा बुलंद किया, तो तब मोदी के रहे पीके (प्रशांत किशोर) ने सियासत की दुनिया में बतौर रणनीतिकार सफलता का नया इतिहास रचा। एक पीके को आमिर खान का सहारा मिला, तो दूसरे पीके के सहारे मोदी, प्रधान मंत्री बन गए। ये दीगर बात है कि मोदी खुद को प्रधान सेवक कहना/कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं।

 बॉक्स ऑफिस पर पीके की कामयाबी के बाद, राजकुमार के बारे में कहा जाने लगा कि वह जो न करें, कम है। 2014 में जब पीके रिलीज हुई, तब धर्म एक अहम मुद्दा बनकर समाज में छाया हुआ था। उस दौरान धर्म के बड़े-बड़े आढ़ती, रास से दूर कारावास में रात काली कर रहे थे। धर्म की अतिसंवेदनशीलता से बेपरवाह पीके ने उस समय के समाज का हाल बखूबी बयान करते हुए धर्म के आढ़तियों की बखिया उधेड़ दी। पीके यह साबित करने में सौ फीसदी कामयाब रही कि समाज में दो तरह के भगवान हैं। एक वो जो इनसान बनाते हैं, और दूसरे वो, जो इनसान को बनाते हैं।

कुछ इस तरह का हाल 2014 में देश के राजनीतिक क्षितिज का भी था। चारों तरफ निराशा छाई हुई थी। तकरीबन रोज नए घोटाले की खबरों से आजिज जनता कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को पानी पी-पी कर कोस रही थी। तब के पीएम, जनता का मन मोहने में पूरी तरह नाकामयाब हो गए थे। और ज्यादातर लोग युवराज (राहुल गांधी) के हाथ देश की कमान सौंपने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। मानो उन पर किसी को भरोसा ही न हो। देश चलाने के लिए जनता सत्तारूढ़ पार्टी के साथ-साथ युवराज का भी पूरी शिद्दत से विकल्प तलाश रही थी।

 और ठीक उसी समय सियासी मैदान के दूसरे किनारे पर मोदी का उदय हो रहा था। लोगों को उनमें उम्मीद की नई किरण नजर आ रही थी। पीके ने मोदी के चुनाव अभियान को रफ्तार देने के लिए सिटिजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (सीएजी) की परिकल्पना की। और उसके बाद मिली कामयाबी की कहानी ज्यादातर लोगों को आज भी याद है। मोदी की पार्टी को जहां पूर्ण बहुमत मिला, वहीं आमचुनावों में कांग्रेस पहली बार अर्धशतक भी नहीं बना पाई।

 लेकिन पीके को इतने से भला कहां संतोष होने वाला था। महज साल भर बाद 2015 में पीके और सीएजी के उनके कुछ साथियों ने आई-पीएसी (इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) नाम से नई कंपनी खोल कर बिहार विधानसभा चुनाव के लिए काम करना शुरू कर दिया। इस बार पीके जिस शख्सियत के पीछे खड़े थे, उसे मोदी का प्रतिद्वंद्वी नंबर वन माना जाता है। पीके की रणनीति का एक बार फिर तब डंका बजा, जब महागठबंधन ने बीजेपी के गठबंधन को चारों खाने चित कर दिया।

बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा कर राजकुमार की पीके जहां इतिहास बन गई, वहीं बॉक्स बैलेट वाले पीके कामयाबी की नित नई इबारत लिख रहे हैं। हिंदुस्तान की मौजूदा सियायत में चाणक्य का दरजा हासिल कर चुके पीके को सबसे कामयाब राजनीतिक रणनीतिकार माना जा रहा है। बरास्ते मोदी, नीतीश कुमार चहल-कदमी करते हुए वह फिलहाल युवराज के पीछे पूरी दमदारी से खड़े हैं। सियासी पंडितों की मानें तो पीके ही युवराज के डी फैक्टो राजनीतिक सलाहकार भी हैं। मीडिया में आई खबरों के मुताबिक उन्हें साल 2019 तक होने वाले सभी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की डगमगाती नैया पार लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, हालांकि सबसे ज्यादा जोर यूपी के विधानसभा चुनाव पर है।

 पीके की सलाह पर ही अभिनेता से नेता बने राज बब्बर को यूपी कांग्रेस की कमान सौंपी गई। अब यह तो वक्त बताएगा कि वह अपना नाम सार्थक करते हुए राज दिलाएंगे या फिर बब्बर की तरह सिर्फ चिघ्घाड़ लगाते रह जाएंगे। पीके के कहने पर ही शीला दीक्षित को यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भावी सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया। इस सवाल के जवाब का भी इंतजार है कि क्या 82 साल की शीला, सवा सौ साल से भी ज्यादा उम्र की कांग्रेस को यूपी में उसकी जवानी याद दिला पाएंगी।

 यूपी विधानसभा चुनाव की तैयारी के सिलसिले में, पीके की सलाह पर युवराज ने पिछले दिनों सूबा उत्तर प्रदेश के रूद्रपुर में खाट पंचायत की। दिलचस्प यह कि खबरिया चैनलों/ अखबारों/सोशल नेटवर्किंग साइटों पर पंचायत की कम और खाट की ज्यादा चर्चा हुई। और हो भी क्यों न। कांग्रेस की खोई जमीन वापस पाने के लिए दिल्ली से न सिर्फ युवराज रूद्रपुर पहुंचे, बल्कि श्रोताओं के लिए जो खाट बिछाई गई, उन्हें भी खासतौर पर दिल्ली से ट्रकों में लादकर लाया गया था। रैली में शामिल हुए लोग भी बेहद निष्ठावान निकले, खाट पर बैठकर युवराज का प्रवचन सुना, और पंचायत खत्म होने के बाद निशानी के तौर पर खाट साथ लेते गए। अब ये तो सरासर नाइंसाफी है कि पंचायत में बिछी खाट पर बैठने का मजा लो और उसके बाद युवराज की ही खाट खड़ी कर दो।

लेकिन पीके कोई मामूली रणनीतिकार तो हैं नहीं, सो किसानों को खुश करने के लिए युवराज के हाथ में एक नया मंत्र थमा दिया है, हम जीते तो कर्जा माफ और बिजली का बिल हाफ। मंत्र नहीं चला तो कोई बात ही नहीं, और चल गया यानी जीत भी गए तो क्या जनता का सपना पूरा करना जरूरी है। हमें याद है, 2014 में पीके ने मोदी के हाथ- अच्छे दिन आएंगे- का मंत्र थमाया था। मोदी तो सत्ता में आ गए, लेकिन जनता अच्छे दिन आने का अभी इंतजार कर रही है। और मुझे इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता। कुछ लोग सपनों के सौदागर होते हैं। उनका काम सिर्फ सपना दिखाना है। सपने को हकीकत में बदलने से उनका कोई वास्ता नहीं होता।

 वैसे भी बड़े-बड़े बोर्ड लगाकर शर्तिया इलाज का दम भरने वाले जब आज तक किसी की जवानी वापस नहीं दिला पाए तो फिर ये तो सियासत है, जहां किसी तरह की कोई शर्त नहीं होती। यहां सिर्फ वादे होते हैं। और यह गीत तो हम सबने सुन रखा है-कसमें, वादे, प्यार, वफा सब, बाते हैं बातों का क्या।

यूपी विधानसभा चुनाव पीके के लिए खास मौका बन कर आया है। इसमें अगर पास हो गए तो प्रमोशन पाकर उन्हें महाराज के पीके बनने में देर नहीं लगेगी। फिर वो पारस पत्थर बन जाएंगे, यानी जिसे छू लिया, वही सोना।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

आई (मैं) ओ के, पी (पाकिस्तान) ओ के, दुनिया जाए...............

रुसवाई का दरिया तो बहुत तेज था लेकिन। 
तुम भी संभल गए वहांहम भी संभल गए।
चल तो दिए हो साथ मेरे राहे इश्क में। 
क्या होगा अगर पांव तुम्हारे फिसल गए।
ये तो रही इश्क की बात, जिसके बारे में कहते हैं कि इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। और जहां डूब के ही जाना नियति हो, वहां फिसलना-संभलना रोजमर्रा की बात है। लेकिन दुनिया तो इश्क-मुश्क से आगे भी है। पेट भूखा रहेगा तो इश्क कहां से फरमाएंगे। और पेट भरने के लिए मुंह का होना जरूरी है, जिसमें जुबान नाम की एक चीज होती है। जो कई बार तलवार से भी ज्यादा धारदार होती है। तलवार से बाहरी चोट लगती है, पर जुबान अक्सरहा दिल को घायल कर देती है। और अगर जुबान वाकई इतनी खतरनाक है, तो निश्चत तौर पर उसका फिसलना, पांव के फिसलने से ज्यादा खतरनाक होगा। शायद है भी।

अभी हाल का एक वाकया है, जिसमें सेलिब्रिटी ओल्ड यंग मैन राजा यानी दिग्गी राजा उर्फ दिग्विजय सिंह की जुबान फिसल गई। बोले- प्रधानमंत्री मोदी को पाक अधिकृत कश्मीर की ज्यादा चिंता हैइसके लिए वे बधाई के पात्र है लेकिन वे हिंदुस्तान के कश्मीरियों से बात करने को तैयार नहीं है. अगर हमें कश्मीर के लोगों के मन में विश्वास पैदा करना है फिर चाहे वह पाक अधिकृत कश्मीर हो या भारत अधिकृत कश्मीर, यह वहां के लोगों से बातचीत के जरिए ही संभव है। अब उन्हें कौन समझाए कि कश्मीर तो भारत का अभिभाज्य अंग है। हम तो पाक अधिकृत कश्मीर को भी अपना मानते हैं। हालांकि हर बार की तरह ही इस बार भी उन्होंने सफाई दी कि देश के लोगों ने उनकी बात का गलत मतलब निकाल लिया।
इतिहास पर गौर करें तो जुबान फिसलने के मामले में राजा का कोई सानी नहीं है। जब-तब फिसल ही जाती है। हालांकि सच यह भी है कि राजा कुछ दिन शांत रहें तो लोगों को बेचैनी होने लगती है। उधर, राजा के साथ दिक्कत यह कि बोले तो हंगामा और न बोले तो कयासबाजी कि चुप क्यों हैं? शायद यही वजह है कि चुप्पी तोड़कर जल्द ही वह अपनी मौजूदगी का अहसास करा देते हैं। राजा को राजधर्म भूल भी कैसे सकता है।

दुनिया जिसे आतंकी नंबर एक मानती थीउसकी मौत के बादराजा उसे ओसामाजी पुकारने लगे थे। जल्द ही उन्हें महसूस हुआ कि अब तो दुनिया बिन लादेन हो गई है। यह काम तो ओसामा के जिंदा रहते करना चाहिए था। सो कुछ दिन बाद ही अपनी गलती सुधारते हुए उन्होंने अपनी साहेब की पदवी से मोस्ट वांडेड हाफिज सईद को नवाज दिया। वही हाफिज सईद जो हिंदुस्तान के खिलाफ आए दिन जहर की कुल्ली किया करता है। वही हाफिज सईद, जिसके खिलाफ हाल में दरगाह आला हजरत की तरफ से फतवा जारी किया गया है। मुफ्ती मुहम्मद सलीम बरेलवी ने हाफिज सईद को आतंकी विचारधारा रखने वाला शख्स बताया है। साथ ही सईद को मुसलमान मानने और उसकी बातों पर यकीन करने से मना किया है।

हालांकि जब राजा ने हाफिज सईद को साहेब करार दिया था, तब आतंकियों को लगा थाकोई तो हैजो उन्हें सम्मान भरी नजरों से देखता है। उनके लिए जी और साहेब जैसे संबोधन का इस्तेमाल करता है। वैसे भी राजा के कद्रदानों की कमी नहीं है। युवराज से लेकर तमाम नामचीन हस्तियों लंबी फेहरिस्त है। राजा इसलिए पुकार रहा हूं क्योंकि साहेब तो हाफिज सईद के साथ चला गया। उसके बाद से ही उन्हें राजा कहता हूंबेशक उनके पास न सूबा हैन रियासत। रह गई है सिर्फ सियासत। बोलते रहिए, राजा, सियासत का यही तकाजा है। 

बुधवार, 13 जुलाई 2016

कुछ तो लोग कहेंगे.................

क्योंकि सास भी कभी बहू थी-फेम स्मृति इरानी एक बार फिर चर्चा में हैं। कई दिनों से फिजां में यह बात तैर रही है कि इस बार मोदी कैबिनेट की आस्तीन चौड़ी हुई तो स्मृति का कद छोटा हो गया। मीडिया पंडित से लेकर सियासत दां तक उधेड़-बुन में लगे हुए हैं कि शिक्षा (मानव संसाधन विकास) मंत्रालय जैसा अहम महकमा संभालने वाली स्मृति अब हल्के-फुल्के कपड़ा मंत्रालय में क्या करेंगी। उनकी उधेड़बुन भी ऐसी, जिसमें सिर्फ उधेड़ना है, बुनावट की गुंजाइश नहीं।

माता-पिता ने स्मति नाम चाहे जिस भी वजह से रखा हो, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वह जहां जाती हैं, अपनी स्मृति छोड़ती हैं। स्मृति अच्छी हो या बुरी, अपनी बला से। फिर चाहे परिवार की सारी बंदिशें तोड़कर मैकडॉनल्ड्स में वेट्रेस की नौकरी करना हो, सौंदर्य प्रसाधनों के प्रचार के लिए मॉडलिंग की बात हो, या फिर फेमिना मिस इंडिया प्रतियोगिता में बतौर प्रतिभागी हिस्सेदारी। हर जगह उन्होंने अपनी स्मृतिछोड़ी।

अभिनय का भूत सवार हुआ, तो राजनीतिक राजधानी छोड़कर स्मृति ने आर्थिक राजधानी की राह पकड़ ली। दरअसल, बॉलीवुड़ वहीं जो है। सन 2000 में-हम हैं कल आज कल और कल- के जरिए स्मृति ने छोटे परदे के दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन दरवाजा खुला एकता कपूर के सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी से। फिर तो लगातार आठ साल यानी 2008 तक दरवाजा सिर्फ उनके ही इशारे पर खुला-बंद हुआ। किसी के पांव उस दरवाजे के पास फटक तक नहीं पाए। तुलसी के किरदार में स्मृति दर्शकों, खासतौर पर महिलाओं के दिलों पर राज करती रहीं।

छोटे परदे से छलांग लगाकर राजनीतिक आसमान पर चमकने तक की उनकी कहानी भी कम रोमांचक नहीं है। हालांकि तकरीबन पांच साल तुलसी और स्मृति का सफर साथ-साथ चला। 2003 में भाजपा की मेंबरी ली और दिल्ली के चांदनी चौक लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस के दिग्गज कपिल सिब्बल से दो-दो हाथ करने के लिए चुनावी अखाड़े में कूद गईं। पहले सीरियल की तरह पहली सियासी जंग में भी नाकामयाबी मिली। पर 2010 में भाजपा महिला मोर्चा की कमान संभाली तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक साल के भीतर ही बरास्ता गुजरात, राज्यसभा पहुंच गईं। 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तो अमेठी में उनके सामने थे कांग्रेस के कुंवर और आम आदमी पार्टी के कुमार, जिन्हें विश्वास था कि जीत उन्हीं की होगी। हारीं तो स्मृति इस बार भी पर पार्टी में उनका स्वागत हुआ विजयी नायिका की तरह। कुंवर को कड़ी चुनौती देने के एवज में उन्हें बड़ा इनाम मिला। चुनाव परिणाम आने पर, जब मोदी मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो उन्हें अहम माने जाने वाले मानव संसाधन विकास मंत्री के ओहदे से नवाजा गया। उसके बाद अपने बेलौस बयानों की वजह से दर्जनों बार वह जबरदस्त चर्चा में रहीं। कभी तारीफ मिली तो कभी जमकर आलोचना भी हुई। पिछले हफ्ते मोदी मंत्रिमंडल का पुनर्गठन हुआ तो उन्हें कपड़ा मंत्रालय थमा दिया गया।

न केवल राजनीतिक विरोधी बल्कि मीडिया पंडित और सियासद दां भी जैसे इसी मौके का इंतजार कर रहे थे। इसी बहाने उन्हें तरह तरह की कयासबाजी का मौका मिल गया। कहा तो यहां तक गया कि स्मृति के हाथ से किताब लेकर सिलाई मशीन थमा दी गई। लेकिन जब स्मृति से प्रतिक्रिया पूछी गई तो उन्होंने बीते जमाने के सुपरस्टार स्व. राजेश खन्ना को याद करते हुए केवल यही कहा....कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।

मोदी से उनकी निकटता भी अक्सर चर्चा का विषय बनती है। बेशक उनकी यह काबिलियत पार्टी में मौजूद उनके आलोचकों को फूटी आंख न सुहाती हो, लेकिन वे भी मानते हैं कि स्मृति बेखौफ महिला हैं, और अपनी बात कहने में हिचकिचाती नहीं,  नतीजा चाहे जो हो। विरोधी, आलोचक, सियासत दां और मीडिया पंडित चाहे जिस उधेड़-बुन में हों, लेकिन एक बात तो साफ है कि स्मृति बुनने में ज्यादा यकीन रखती हैं। उत्तर प्रदेश में बड़ा टेक्सटाइल बाजार है, गोरखपुर-खलीलाबाद-मऊ से लेकर मऊरानीपुर-झांसी तक बड़े पैमाने पर हैंडलूम का कारोबार होता है, बनारसी साड़ियों की अलग पहचान है तो भदोही के कालीन से भी देश-विदेश के लोग वाकिफ हैं। बुनाई उद्योग से जुड़े वोटरों (ज्यादातर मुसलिम) के बीच अपनी पैठ बनाकर वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का ताना-बाना बुनने में जुट सकती हैं। पार्टी को वहां वैसे भी किसी चेहरे की दरकार है। ग्लैमर का तड़का है, चेहरा जाना पहचाना है, हाजिर जवाब और अच्छी वक्ता तो खैर वो हैं ही। केंद्रीय राजनीति में रहकर सियासत का दांव-पेंच भी उन्होंने अच्छी तरह सीख लिया है। संभव है प्रधानमंत्री ने उन्हें कपड़ा मंत्रालय बहुत सोच समझकर दिया हो।

कहते हैं, इंसान की तीन बुनियादी जरूरतें होती हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। इसमें दो राय नहीं कि शिक्षा की बदौलत इन तीनों को हासिल किया जा सकता है। लेकिन अपने प्रधानमंत्री जी का तो काम करने का तरीका ही निराला है। विरोधी भले उन्हें फेंकू पुकारते हों, लेकिन पलटवार कर जब वह जवाब फेंकते हैं, तो सामने वाले को पोछते नहीं बनता। संभव है कि छोटी-छोटी बातों पर गौर करने वाले मोदी को लगा हो कि स्मृति कपड़ा का इंतजाम करें, रोटी और मकान की जिम्मेदारी कोई और संभाल लेगा। फिर लोग कहेंगे-क्योंकि स्मृति भी कभी मानव संसाधन विकास मंत्री थी।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

राइटर (लेखक), राइट (सही) और राइअट (दंगा)

अंग्रेजी के तीन शब्द- राइटर (लेखक), राइट (सही) और राइअट (दंगा)- आजकल देश की दशा और दिशा तय करते नजर आ रहे हैं। अखबार हों या सरकार, विपक्ष हो या विश्राम कक्ष, हर जगह चर्चा के केंद्र में शब्दों की यही तिकड़ी है। इनके बिना न सुबह की प्याली हलक से नीचे जा रही है, न शाम का प्याला। तमाम लोगों को तो सपने में भी ये तीन शब्द परेशान कर रहे हैं। 

सबसे पहले राइटर पर चर्चा। एक खास विचारधारा से प्रतिबद्ध राइटर जमात को लगता है कि प्रगतिशीलता पर उनका पुश्तैनी हक है, विकास की बात करने वाले बाकी सारे लोग ठकुरसुहाती कर रहे हैं। फिर चाहे शोभा डे हों, उदय प्रकाश हों नयनतारा सहगल, सारह जोसेफ या फिर अशोक वाजपेयी। इन तमाम लबड़हत्थे राइटर को लग रहा है कि चार दशक बाद देश में एक बार फिर से इमरजेंसी का जिन्न बोतल से बाहर निकल आया है। देश के सामाजिक ताने बाने को बिगाड़ने की कोशिश करते हुए एक कार्य योजना के तहत साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा जा रहा है और हिंदुत्ववादी ताकतें सबकुछ अपने मनमुताबिक कर रही हैं। उन्हें लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म और सौहार्द्र पर भी खतरा मंडराता नजर आ रहा है। शायद इसीलिए उन्हें लगता है कि इसे किसी भी हाल में तत्काल रोकना निहायत जरूरी है। और इसके लिए साहित्य अकादमी अवार्ड लौटाने से कारगर कोई अन्य हथियार हो ही नहीं सकता।

उदय प्रकाश, सारह जोसेफ और अशोक वाजपेयी के अवार्ड लौटाने के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अरविंद मालागट्टी, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी,  गणेश देवी, एन. शिवदास, कुम वीरभद्रप्पा, गुरबचन सिंह भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह और वारयाम सिंह संधू पर खत्म होने वाला नहीं लगता। आने वाले दिनों में अवार्ड लौटाने की और घटनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

वाम विचारधारा वाले इन राइटर को लगता है कि -अभी नहीं तो कभी नहीं- वाली निर्णायक घड़ी आ गई है। उनका सारा विरोध हाल में घटी दो प्रमुख घटनाओं को लेकर है। पहला लेखक एम.एम. कलबुर्गी और गोविंद पानसरे की हत्या और दूसरा दादरी के एक गांव में बीफ खाने को लेकर, पगलाई भीड़ के हाथों अखलाक का कत्ल। फिलवक्त, मुंबई में गजलगो गुलाम अली का कन्सर्ट रद्द होने को भी इसी के साथ जोड़ दिया गया है। इसकी मुखालफत करते हुए ये राइटर जिस हिसाब से अवार्ड लौटा रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है कि इस आंकड़े को शतक बनाने में देर नहीं लगेगी।

अवार्ड लौटाने वाली इस राइटर जमात से अब यह पूछने की जहमत कौन उठाए कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए देशव्यापी राइअट में जब लगातार तीन दिनों तक भेड़-बकरियों की तरह सिखों का कत्लेआम किया जा रहा था, बाबरी विध्वंस के बाद 1993 में जब देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई राइअट की चपेट में आकर कई दिनों तक धू-धू चल रही थी या फिर गोधरा की घटना के बाद 2002 में जब गुजरात में हुए राइअट में सांप्रदायिक सौहार्द की होलिका जलाई जा रही थी, तब इनकी आत्मा ने इन्हें क्यों नहीं झकझोरा।

यही नहीं, मलियाना-हाशिमपुरा कांड में जब सैकड़ों लोग मारे गए, तब अकादमी पुरस्कार लौटाने की बात इनके जेहन में क्यों नहीं आई। 2011 में मुंबई के ताज होटल सहित कई इमारतों पर हुए हमलों में जब देसी-विदेशी सैकड़ों बेकसूर लोगों को जान से हाथ धोड़ा पड़ा, जब मुजफ्परनगर में राइअट हुआ, तब इनके अर्न्तमन ने इन्हें क्यों नहीं धिक्कारा। यह तो महज बानगी है, इस तरह के राइअट और वाकयों से आजाद भारत का इतिहास अटा पड़ा है। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की शुरुआत के बाद नेल्ली, राउरकेला, जमशेदपुर, मुरादाबाद, कोकराझार समेत तमाम जगहों पर हुए राइअट ने देश के तथाकथित सेकुलर चरित्र पर बदनुमा दाग लगाया, पर इससे पहले कभी इस तरह अवार्ड लौटाने वाली आंधी नहीं चली।

अवार्ड लौटाने वालों के बावलेपन को देखकर पहली नजर में तो यही लगता है कि लेखकों की इस जमात का- सुविधा के समाजशास्त्र - में पक्का यकीन है। यानी वाकया बड़ा हो चाहे छोटा, किसी गांव या मुहल्ले में हो या फिर उसका दायरा कोई पूरा इलाका या सूबा हो, उनको महज इस बात से मतलब है कि वह उन्हें सूट कर रहा है या नहीं। सूट किया तो अवार्ड लौटाने वाला लोकाचार, नहीं सूट किया तो वाकये से आंखे फेर लो यार।

अब राइट (सही) पर भी थोड़ी बात कर ली जाए। प्रगतिशील कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे या अल्पसंख्यक अखलाक की हत्या हुई/कराई गई, इसमें कोई संदेह नहीं। हत्या जैसे इस कुकृत्य को कोई राइट ठहरा भी नहीं सकता। हत्या अगर रांग है, तो रांग है, उसके राइट ठहराने के पक्ष में किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं बनती।

एक संयोग यह भी है कि कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे और अखलाक अपनी हत्या के बाद जबरदस्त चर्चा में आ गए। इनकी हत्या के बाद इस कदर शोर मचा कि हर खासो-आम हैरान रह गया। आखिर ऐसा क्या खास था कि इनकी ही हत्याएं मीडिया की सुर्खियां बनीं। अखबारों के पन्ने रंगे गए, टीवी पर तमाम बड़ी खबरें बेमौत मरने को मजबूर हुईं। कलबुर्गी को जब अकादमी पुरस्कार मिला था, तब उनकी चर्चा साहित्य में रुचि रखने बुद्धिजीवी वर्ग तक ही सिमट कर रह गई थी, आम आदमी को तो याद भी नहीं होगा कि किस रचना के लिए और किस साल उन्हें अवार्ड मिला था। अलबत्ता, पैन इंडियन प्रसिद्धि उन्हें मरणोपरांत जरूर मिली।

दाभोलकर, पानसारे और अखलाक को भी देश का आम आदमी तभी जान पाया, जब चंद आतताइयों ने उनका सिर कलम कर दिया। आतताइयों की वैसी भी कोई मजहब या जाति नहीं होती। ठीक आतंकवादियों की तरह। अब यह दीगर बात है कि अखलाख के कत्ल के लिए हिंदुओं को कसूरवार ठहराया गया, जबकि दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्या का आरोप दक्षिणपंथियों के सिर मढ़ा गया। जानकार बताते हैं कि आजाद भारत के इतिहास लेखन में भी इसी तरह की बाजीगरी की गई है।

किसी ने ठीक कहा है कि कब किसकी किस्मत चमकेगी, कोई नहीं जानता। किसी की जीते जी चमक जाती है और किसी की मौत के बाद। कुछ मर कर अमर हो जाते हैं, तो कुछ मर कर घरवालों के लिए अकूत संपदा का इंतजाम कर जाते हैं। अब अखलाक को ही ले लीजिए। जीते जी उसने सपने में भी सोचा नहीं होगा कि उसकी मैय्यत उठने के बाद सूबे की सरकार की मेहरबानी से परिवार वालों की लाटरी खुल जाएगी। नोटों की बरसात होने लगेगी।


आप अगर राइटर हैं, खासतौर पर वामपंथी राइटर तो आपकी कलम राइट-रांग का हिसाब रखेगी ही। आपको हर उस वाकये में राइअट की बू आएगी, जिसको आपके हिसाब से राइटिस्ट या देश की बहुसंख्यक आबादी ने अंजाम दिया है। आपको प्रधानमंत्री या साहित्य अकादमी के चेयरपर्सन की चुप्पी पर भी हैरानी होगी। और हो भी क्यों न, आखिर बुद्धि पर एकमुश्त अधिकार आपका ही तो है।  

सोमवार, 21 सितंबर 2015

बीपीएल सीरीज में बीपीएल वोटों पर मारामारी

बीपीएल (बिहार पॉलिटिकल लीग) वन-डे सीरीज का ऐलान हो चुका है। पांच मैचों वाली इस सीरीज का आगाज 12 अक्टूबर को हो रहा है, जबकि आखिरी मैच 5 नवंबर को खेला जाएगा। बाकी के तीन मैच 16 व 28 अक्टूबर एवं 1 नवंबर को होंगे। सीरीज के नतीजे 8 नवंबर को आएंगे।

एसपी-एनसीपी और लेफ्ट फ्रंट को मिलाकर वैसे तो सीरीज में कुल चार टीमें हिस्सा ले रही हैं, पर असली मुकाबला महा-गठबंधन (जेडी-यू, आरजेडी, कांग्रेस) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक (राज)-गठबंधन (बीजेपी, एलजेपी, हम व आरएलएसपी) के बीच ही है। दोनों टीमें सीरीज पर कब्जा जमाने के लिए जोर-शोर से तैयारी में जुटी हुई हैं। नेट प्रैक्टिसों का दौर जारी है। जीत की रणनीति बनाने के लिए कोच और अनुभवी खिलाड़ियों की भी मदद ली जा रही है। मजेदार यह कि बीपीएल सीरीज में सबसे ज्यादा मारा-मारी बीपीएल (बिलो पावर्टी लाइन) वोटों को लेकर है। उन्हें रिझाने-पटाने के लिए सारे तीर-तिकड़म आजमाए जा रहे हैं। पहले आजमाए जा चुके नुस्खों पर भी अमल किया जा रहा है। बीपीएल वोट (इसमें दलित-महादलितों की तादाद सबसे अधिक है) जिसकी तरफ झुक जाएंगे, जीत का सेहरा उसी के सिर बंधेगा।

टीम महागठबंधन के कैप्टन, मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को बीपीएल वोटरों का सबसे बड़ा खैरख्वाह बता रहे हैं। लोहार जाति को अनुसूचित जाति में शामिल कराने का रिकार्ड पहले ही वह अपने नाम करा चुके हैं। उनकी मानें तो उन्होंने सिर्फ दलितों का ही नहीं, बल्कि महादलितों का भी भला किया है। यह दीगर बात है कि उनके इस दावे को लेकर उनकी, अपनी टीम के मास्टर ब्लास्टर यानी लालू जी से ठनी हुई है। लालूजी को भला कैसे यह गंवारा हो सकता है कि पिछले करीब एक दशक से जिस बीपीएल की उन्होंने दुकानदारी की, आम खाने का वक्त आने पर कोई दूसरा उन्हें गुठली थमा दे। दोनों अपने को बीपीएल वोटरों का मसीहा साबित करने में दिन-रात एक किए हुए हैं। सुशासन बाबू और कुशासन बाबू नाम से शोहरत बटोर चुके दोनों नेताओं की इसी नूरा-कुश्ती के चलते सोनिया जी की कांग्रेस ने बीपीएल वोटों पर अभी तक अपना हक नहीं जताया है। राहुल बाबा भी इस बार किसी दलित या महादलित के यहां भोज पर नहीं जा रहे हैं।

लोकसभा चुनावों में गैर राजग दलों का हश्र देख, महागठबंधन की नींव रखने वाले माननीय नेता जी उर्फ मुलायम सिंह यादव भी शायद इन्हीं सब वजहों से गांठ खोलकर बंधन मुक्त कर चुके हैं। वैसे भी, कोई माने या ना माने पर, क्रिकेट सॉरी कुश्ती के असल पहलवान-माफ कीजिएगा खिलाड़ी तो वो ही हैं। अबकी बार वह अकेले ही बल्लेबाजी करेंगे।

राज-गठबंधन का किस्सा भी कुछ खास अलग नहीं है। राम बिलास पासवान के चिराग अब खुद को बीपीएल का स्वाभाविक चिराग साबित करने की हरसंभव कोशिश में हैं। उनका कहना है कि बीपीएल वोटरों को उनका वाजिब हक, केंद्र में मंत्री रहते उनके पिता ने ही दिलवाया। वह उनके पिता ही हैं, जिन्होंने बीपीएल वोटरों की जिंदगी में चिराग रौशन किया। सो बीपीएल वोटरों पर सबसे ज्यादा हक उन्हीं का बनता है। 

उधर, दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की कामयाबी से प्रभावित होकर उसी की तर्ज पर हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) बनाने वाले सूबे के शार्ट टर्म सीएम रहे जीतन राम मांझी को लगता है कि नाव तो सिर्फ मांझी ही पार लगा सकता है, फिर चाहे उस पर बीपीएल वोटर सवार हों या फिर हम या आप कोई भी। यही वजह है कि आए दिन राज-गठबंधन के दोनों राम (जीतन राम और राम बिलास) में यह साबित करने की होड़ लगी रहती है कि बीपीएल वोटरों का असली नुमाइंदा कौन है? हम तो बस यही कह सकते हैं कि राम की माया राम ही जानें।

कुरमी-कोइरी वोटरों के बूते सूबे की राजनीति में मजबूत दखल रखने का दावा करने वाले कुशवाहा का भी दिल है कि मानता नहीं। उन्हें लगता है कि इस बार की बीपीएल सीरीज में अपने कोटे के जितने खिलाड़ियों को टीम में शामिल करा लिया जाए, उतना ही आगे की राजनीति के लिए बेहतर रहेगा। 

केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी इस भी सीरीज में बीपीएल को लेकर कम चिंतित नहीं है। उसे इस बात का बेहतर अंदाजा है कि सूबा बिहार के लगभग 40 लाख बीपीएल परिवारों से ताल्लुक रखने वाले वोटर किसी भी सियासी दल का खेल बना या बिगाड़ सकने का माद्दा रखते हैं। बीपीएल वोटरों की अहमियत समझते हुए ही बीजेपी शासित किसी सूबे में अन्त्योदय कार्यक्रम चलाया जा रहा है, कहीं उन्हें किफायदी दर पर चावल दिया जा रहा है, तो कहीं घर बनाने के लिए जमीन, बिजली बिल में माफी और विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी जा रही है। यह भी सबको पता है कि बीपीएल समीकरण को ध्यान में रखते हुए ही बीजेपी ने सूबे में एलजेपी, हम और आरएलएसपी को साथ रखा है। यही नहीं, शायद इसी वजह से पार्टी ने अभी तक सीएम पद के लिए किसी के नाम की घोषणा नहीं की है। 

अब यह तो वक्त ही बताएगा कि बीपीएल वोटरों के सहयोग से बीपीएल सीरीज पर किसका कब्जा होगा। हम इंतजार करेंगें नतीजा आने तक।


शनिवार, 25 अप्रैल 2015

पइसा मत फेंको, तमाशा देखो

भारत महान परंपराओं वाला देश है। तमाम परंपराओं की तरह अनादि काल से यहां तमाशबीन बने रहने की भी परंपरा रही है। लोग-बाग घर फूंककर तमाशा देखने जाते हैं। फिर तमाशा चाहे भालू का हो या बंदर का। सड़क पर हो या संसद के अंदर का। नेता का हो या अभिनेता का। भिखारी का हो या मदारी का।
तमाशा तो आखिर तमाशा है। तमाशा है, तो मजमा लगेगा ही। दोनों का जैसे चोली-दामन का साथ हो। हर तमाशे में यही होता है। डमरू कोई बजाएगा और खेल कोई और दिखाएगा। उस मजमें में भी वही हुआ, जो पिछले दिनों दिल्ली के जंतर-मंतर पर लगा था। मंच सजा था, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने के लिए। हजारों की भीड़ जुटी थी। झाड़ूबरदारों का एक तमाशा चल ही रहा था कि सामने नीम के पेड़ पर शुरू हुए एक दूसरे तमाशे ने मानो महफिल लूट ली।
तमाशे में शामिल होने के लिए राजस्थान के दौसा जिले से आए किसान बताए जा रहे गजेंद्र सिंह ने नीम के पेड़ पर चढ़कर अपने गले में गमछा बांध लिया और फिर कथित तौर पर सरेआम खुदकुशी कर ली। दूर-दूर से जुटाई गई किसान जमात तो खैर तमाशा देखने के लिए ही आई थी, पर हैरान कर देने वाली बात यह है कि जिम्मेदार आप बहादुर, मीडिया और पुलिस भी तमाशा देखने में मशगूल हो गई। गोया, ऐसा तमाशा पहले कभी देखा-सुना ही नहीं हो।
उसके बाद तो आरोप-प्रत्यारोप का जो खेल शुरू हुआ, उसका भी कोई सानी नहीं है। कोई सूबा दिल्ली पर हुकूमत करने वाली आम आदमी पार्टी को दोषी ठहरा रहा है, तो कोई आजाद भारत पर सबसे अधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी को। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी आरोपी होने से बच नहीं सकती। उसके दामन पर भी छींटे लगे हैं। सच तो यह है कि सब अपनी अपनी रोटी सेंकने में लगे हुए हैं।
उधर, जब से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश आया है, तब से देश भर के नेताओं में किसान नेता बनने की होड़ लग गई है। हमारा देश भले ही कृषि प्रधान हो, पर किसान नेता की कमी तो सालती ही है। किसानों के सर्वमान्य नेता चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत हमको अलविदा कह गए और चौ. अजित सिंह को किसान नेता मानने को कोई तैयार नहीं। सो किसान नेता की खाली कुर्सी पर कब्जे के लिए तलवारों पर सान चढ़ाई जा रही है। नारे गढ़े जा रहे हैं। रैलियां हो रही हैं। चाहे विपश्यना कर लौटे अपने युवराज हों या फिर दूसरी बार दिल्ली का तख्त संभाल रहे अपने धरना सम्राट। सबको बनना है किसान नेता। बह रही है गंगा, डुबकी लगा लो और बन  जाओ किसान नेता, ऐसा मौका फिर न मिलेगा।
और बेचारे किसान तो जैसे खुदकुशी करने के लिए ही पैदा हुए हैं। चाहे महाराष्ट्र के किसान हों या बुंदेलखंड के। कहीं कोई किसान कर्ज के बोझ तले दबे होने की चिंता में जान दे रहा है, तो कोई अपनी आंखों के सामने अपनी फसल की बर्बादी देखकर। और सोने पे सुहागा यह कि जब से नमो ने अपनी किस्मत पर इतराना शुरू किया, तब से कुदरत ने भी किसानों पर अपनी खास मेहरबानी दिखाने का सिलसिला शुरू कर दिया। बेमौसम बारिश से देश भर में रबी की फसल को कितना नुकसान पहुंचा है, अभी इसको लेकर जोड़-घटाना किया जा रहा है।
हां, कहीं कहीं मुआवजे की रस्म अदायगी भी शुरू हो गई है। अखबारों में कभी किसानों को बतौर मुआवजा दो रुपये देने की खबर आ रही है तो कभी 75 रूपये देने की। अब इन बावलों को कौन समझाए, मुआवजे की इतनी रकम से किसान कौन सा कोदो उखाड़ लेंगे। और अब जरा, मुआवजे की रकम तय करने वाले नेताओं की सोचिए। फसल की बर्बादी और मुआवजे की इत्ती सी रकम से जहां किसानों के दिल टूट रहे हैं, वहीं नेताओं के दिल मिल रहे हैं। बीजेपी और नमो की शक्ल तक से बिहार के जिस मुख्यमंत्री को नफरत हो गई थी, वही पूर्णिया और आस-पास के इलाकों में तूफानी बारिश के बाद बदले हालात में केंद्र सरकार की सक्रियता को लेकर नमो का गुणगान कर रहे हैं।
जंतर मंतर पर खुदकुशी करने वाले गजेंद्र के घरवाले भले ही उसे शहीद का दर्जा दिए जाने मांग कर रहे हों, लेकिन एक बात तो पक्की है कि जान भले किसी की गई हो, पर मौत आप बहादुरों की हुई है। शायद उन्हें इस बात का अहसास भी हो गया है। तभी तो सूरमा माफी मांग रहे हैं। भाई कितनी बार माफी मांगोगे। गलती करना तो आपकी नियति है। डैमेज कंट्रोल के क्रम में कोई झाड़ूबरदार आंसू बहा रहा है, कोई घर वालों के आंसू पोंछने का प्रहसन करते हुए 10 लाख का चेक लेकर जा रहा है। उधर, गजेंद्र के घर वाले हैं कि किसी को माफ न करने की कसम खाए हुए हैं।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, कानून बनकर अमल में आए या न आए, किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमे या न थमे, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि गजेंद्र ने जान देकर किसानों को फिर से सेंटर स्टेज पर ला दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि किसानों की चर्चा महज बुलबुला साबित होती है या फिर वास्तव में उनके अच्छे दिन आएंगे।