मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मोदी करे तो साला कैरेक्टर ढीला है.

सद्भावना मिशन के नाम पर तीन दिनों तक चले उपवास ने, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर भाजपा (जिस पार्टी से मोदी ताल्लुक रखते हैं) की सेहत पर कितना असर डाला यह तो बाद में पता लगेगा, पर इसमें कोई विवाद नहीं कि इसने, देश की सभी पार्टियों और उनके प्रमुख नेताओं को किसी न किसी तरह प्रभावित जरूर किया.
मोदी ने अपने उपवास को सद्भावना मिशन नाम दिया, पर ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है जिनके लिए वह नौटंकी, तमाशा या राजनीतिक शोशेबाजी से अधिक, कुछ नहीं था. कहा जा रहा है कि हाई प्रोफाइल उपवास के बहाने मोदी ने अपने पाप धोने की कोशिश की. 2002 में हुए गुजरात दंगों में उनकी भूमिका को देश का बुद्धिजीवी और प्रगतिशील तबका इसी नाम से पुकारता है. पर मेरे हिसाब से उपवास के बहाने, मोदी ने शुद्ध रूप से राजनीति की- उपवास की राजनीति. मोदी राजनेता हैं. उस लिहाज से राजनीति उनका धर्म-कर्म है, और होना भी चाहिए. इसमें बुराई कहां है? राजनेता अगर राजनीति नहीं करेगा तो और क्या सब्जी बेचेगा?
राजनीति में सब कुछ जायज माना जाता है. फिर चाहे वह परदे के पीछे हो या सरेआम. मोदी ने उपवास की राजनीति की. बाकायदा डुगडुगी पिटवाई, देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया और उस बहाने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे. कम से कम इसमें किसी को ऐतराज नहीं होगा कि लगातार तीन दिनों तक देश भर की मीडिया में वह छाए रहे. इसने साबित कर दिया कि आप मोदी को पसंद कर सकते हैं, उनसे नफरत कर सकते हैं, लेकिन उनकी अनदेखी नहीं कर सकते.
एक बात समझ में नहीं आई कि उपवास मोदी करने जा रहे थे, लेकिन दूसरों के पेट में ऐंठन क्यों हो रही थी? सबसे पहले मोदी के राजनीतिक गुरु से विरोधी बने शंकर सिंह बाघेला की बात करते हैं. मोदी के उपवास का ऐलान उन्हें हजम नहीं हुआ. सो उन्होंने उपवास का जवाब उपवास से ही देने का फैसला किया. यह तो अच्छा हुआ कि मोदी ने कोई और अनुष्ठान नहीं लिया था, वरना बाघेला साहब के लिए मुश्किल हो जाती. बहरहाल अपने उपवास की कामयाबी के लिए उन्होंने तंबू-कनात लगवाया, दंगा पीडि़तों की भीड़ जुटाई, हरेन पांड्या के परिजनों को बुलाया. इसके अलावा, और भी जो कुछ कर सकते थे, किया. क्या बाघेला साहब इस बात से इंकार कर सकते हैं कि यह सब राजनीति नहीं थी.
हालांकि बाघेला साहब को अब तक हिंदी की यह कहावत समझ में आ जानी चाहिए थी कि गुरु गुड़ ही रह गए, चेला शक्कर हो गया. सीधा-सा मतलब है कि उन्हीं से राजनीति का ककहरा सीखने वाला उनका शिष्य अब बहुत आगे निकल चुका है. अब उससे होड़ करने का कोई मतलब नहीं. मोदी को जहां देश भर में जाना-पहचाना जाता है, वहीं गुरुजी के सामने अपने गृह प्रदेश के बाहर पहचान के संकट से जूझने का खतरा है. गुजरात के बाहर और राजनीति में रुचि रखने वालों के अलावा कम ही लोग उन्हें जानते-पहचानते हैं. अगर मेरी बात पर यकीन नहीं तो खुद ही पता कर लीजिए.
मोदी के अनशन से सामाजिक कार्यकर्ता और मशहूर नृत्यांगना मल्लिका साराभाई का भी हाजमा खराब हो गया. मल्लिका जी, आप बेकार ही राजनीति में पांव पसार रही हैं. मैं तो कहूंगा, अभी भी मौका है, ज्यादा देर नहीं हुई है. उसी काम में मन लगाइए, जिसने आपको इतनी शोहरत दिलवाई. कम से कम उसमें कीचड़ लगने का तो खतरा नहीं है. वैसे आपका रिपोर्ट कार्ड यही बताता है कि राजनीतिक ता ता-थैया के लिए अभी और रियाज की जरूरत है. बहरहाल, अपने वकीलों को घूस देने का जो जुमला आपने उछाला है, वह पहली नजर में काफी बचकाना लगता है. अलबत्ता, इस बात के लिए आपको धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि आपने अपने तई पूरी राजनीति करने की कोशिश की. अच्छा है, अनुभव काम आएगा.
अब जरा पार्टियों की बात करते हैं. तथाकथित सेकुलर पार्टियां तो भाजपा को सांप्रदायिक कहती ही हैं, देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कांग्रेस भी इस मामले में पीछे नहीं रहना-दिखना चाहती. और बात जब भाजपा के सबसे सांप्रदायिक चेहरे यानी नरेंद्र मोदी की हो तो फिर भला कौन चुप रहता है. कांग्रेस को गुजरात दंगों के दर्द का तो अहसास है, लेकिन 1984 के सिख दंगों का भूत अब उसे परेशान नहीं करता. उसे उसने भूत यानी पास्ट मान लिया है. उसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका तो नजर आती है, लेकिन सिख दंगों के लिए वह किसी कांग्रेसी नेता को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं. अब यह राजनीति नहीं तो और क्या है?
अब जरा गैर कांग्रेसी पार्टियों की बात करें. अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता के अलावा, शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल जैसे राजग के कई सहयोगी दल जहां मोदी के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े दिखे, वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू के स्वनामधन्य नेता शरद यादव इस पूरे प्रकरण से किनारा किए हुए थे. उन्हें अपने वोट बैंक की चिंता सताए जा रही थी. लेकिन मोदी की उपवास की राजनीति का यही तकाजा था और सबने अपने अपने हिसाब से राजनीति की भी. फिर ऐसा क्यों कि कांग्रेस करे तो ठीक, नीतीश करें तो ठीक, बाघेला करें तो ठीक, मल्लिका करें तो ठीक, पर मोदी करे तो साला कैरेक्टर ढीला है.
(ब्‍लॉग में व्‍य‍क्‍त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, इनका द संडे इंडियन की संपादकीय नीति से कोई लेना-देना नहीं है)

गुरुवार, 16 जून 2011

बहुरेंगे कव्वाली के दिन!

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को क्या हो गया है? कौन-सी बात हो गई कि उन्हें अपना सूबा रास नहीं आ रहा. जिसे देखो, वही यूपी की तरफ भाग रहा है. भागने वाली कहावत तो भइया किसी और ‘लिविंग थिंग’ से जुड़ी है. कहीं, महानुभावों को यूपी ‘शहर’ तो नहीं नजर आने लगा. जिसके पांव निकले, वह चाहे जहां बस गया, पर एमपी नहीं लौटा. पहले मोती लाल बोरा भागे, उत्तर प्रदेश की गवर्नरी की, महामहिम बने. अब दिल्ली में बैठ कर कांग्रेस का खजाना संभाल रहे हैं. एमपी की सियासत को अलविदा बोल दिया. उसके बाद बारी आई दिग्विजय सिंह की. वही, मीडिया में छाए रहने वाले दिग्गी राजा. आजकल कांग्रेस पार्टी में यूपी के प्रभारी महासचिव हैं. वहां कांग्रेस का ‘ठीहा’ मजबूत कर रहे हैं. कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्रियों को भागता देख भाजपा का बेचैन होना लाजिमी था. भगवा पार्टी सोचने लगी,जरूर कोई राज है, चलो पता करते हैं. कामयाबी नहीं मिली तो तय हुआ, आजमा कर देखेंगे. भेज दिया साध्वी उमा भारती को यूपी. वैसे भी बहुत दिनों से खाली बैठी थीं. कोई ‘एसाइनमेंट’ नहीं था. भरी सभा में आडवाणी जी का अपमान काफी भारी पड़ रहा था उन्हें. बहरहाल, अब ‘घरवापसी’ की औपचारिकता पूरी हो चुकी है.
हालांकि साधु-साध्वियों के लिए घर मायने नहीं रखता. महान संत कबीर दास तो पहले ही कह गए हैं, ‘कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ, जे घर फूको आपनो, चले हमारे साथ.’ मतलब साफ है, न अपने घर की चिंता, न दूसरों के घर की. साध्वी से कहा गया कि यूपी में ‘पांचाली’ बनी पार्टी की लाज बचानी है. लालजी, कलराजजी, राजनाथजी, कटियारजी.... कल्याणजी को इसमें मत गिनिएगा, वह तो पहले ही तलाक दे चुके हैं.
साध्वी को फायर ब्रांड नेता माना जाता है. जिन लोगों को मुलायम राज में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आंदोलन की याद होगी, उन्हें पता है कि साध्वी को फायर से यू ही नहीं जोड़ा जाता. आप दीपा मेहता वाली ‘फायर’ के बारे में तो नहीं सोचने लगे. खैर, कहने का मतलब यह कि फायर से कैसे खेला जाता है, साध्वी अच्छी तरह जानती हैं. उस समय अगर यूपी के साथ-साथ सारा देश तपने लगा था, तो उसमें साध्वी का योगदान कम नहीं था. पर ऐसा लगता है कि 20 सालों में यूपी में भाजपा की आग ठंडी पड़ गई. विधानसभा चुनाव अगले साल होने है, पर अभी से कहा जा रहा है कि भाजपा को तीसरे या चौथे स्थान के लिए कोशिश करनी है. समीक्षकों, विश्लेषकों की इसी भविष्यवाणी के बाद शायद साध्वी को यूपी लाया गया है.
हालांकि दिग्गी राजा जिस तरह से ‘भड़काऊ बीज’ छींट रहे, उससे यही लगता है कि बाकी किसी के लिए कोई जगह बचेगी ही नहीं.  उन्हें और उनकी पार्टी को यकीन है कि फसल जरूर लहलहाएगी. इसीलिए वह कभी बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी बताते हैं, तो कभी लादेन को लादेनजी कह देते है. अचानक उन्हें चिंता सताने लगती है कि लादेनजी को इस तरह नहीं दफनाया जाना चाहिए था. कभी कहते हैं कि 26/11 के मुंबई हमले से पहले करकरे ने फोन कर बताया था कि उन्हें हिंदू आतंकवादियों से खतरा है. यानी क्या कहना है, इसका कभी ख्याल नहीं रहा. अब यह तो नहीं पता, कि जो कुछ कहते हैं, वह उनके ही दिमाग की उपज होती है, या फिर किसी की सलाह लेते हैं. संभव है किसी का हुक्म तामील करते हों. माहौल देखकर नहीं लगता कि उनके ‘जहर बुझे तीर’ कमाल कर पाएंगे.
साध्वी और दिग्गी राजा दोनों को अपनी-अपनी पार्टी के आलाकमान का आशीर्वाद हासिल है. साध्वी के लिए घर लौटना आसान नहीं था. उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी.  कई बार माहौल बना. लगा आज या कल घोषणा हो जाएगी. पर रास्ते में रोड़ा आ गया. सबसे ज्यादा विरोध तो उनके अपने सूबे वाले ही कर रहे थे. ये तो अच्छा था कि आलाकमान चाहते थे कि वह घर लौटें . हालांकि उन्हें भी अपने ‘सेनापतियों’ को मनाने-समझाने के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा. दिग्गी राजा का हाल तो सभी जानते हैं. उन्हें पार्टी का ‘दूत’ कम युवराज का ‘अंबेसडर’ अधिक माना जाता है. कभी कभी तो वह ‘स्वयंभू प्रवक्ता’ की जिम्मेदारी भी संभाल लेते हैं. उन्हें लगता है कि युवराज को अगर देश की कुर्सी मिली, तो संभव है सूबा उत्तर प्रदेश उनके हवाले कर दिया जाए.
आजकल फिल्मों में कव्वाली कम ही देखने को मिलती है. नई पीढ़ी के लोग तो कव्वाली पसंद भी नहीं करते, लेकिन उम्रदराज लोगों खुश हैं. उन्हें लग रहा है कि साध्वी और दिग्गी राजा यूपी आ गए हैं तो ‘कव्वाली’ के दिन बहुरेंगे.

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जात न पूछो..


जात न पूछो साधु की- वाली कहावत पुरानी हो चली है. अब तो भइया, -जात न पूछो मूर्तिवाले की. जिसकी मूर्ति बन गई, समझो जात-धर्म से ऊपर उठ गया. अब इसके बाद भी कोई जात की बात करता है, तो हो-हल्ला तो मचेगा ही.
राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह की मूर्ति देश में कई जगह लगी है. तीनों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी. देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए थे. अब चूंकि देश में कांग्रेस नीत सरकार है, सो सत्तारूढ़ पार्टी को लगा कि उसे कुछ भी करने की आजादी है. बस उसने अपनी पत्रिका-कांग्रेस संदेश- में अपनी उसी आजादी का इस्तेमाल करते हुए आजादी के लिए शहीद हुए इन रणबांकुरों की जात का उल्लेख कर दिया. जोश में वह यह भूल गई कि जो मूर्तिमान हो गया, वह जात-पात से ऊपर उठ गया. उसकी जात का उल्लेख किसी भी हालत में नहीं करना है. उल्लेख मात्र से ही उनकी शहादत पर, उसकी उपलब्धियों पर, उसके योगदान पर धब्बा लग जाएगा. पर ऐसा हुआ, तो विपक्षी दल भाजपा को शोर मचाने का मौका मिल गया. कांग्रेस को सफाई देने के लिए बाकायदा महात्मा गांधी और मोतीलाल नेहरू तक को बीच में लाना पड़ा. उसे कहना पड़ा कि किताबों में गांधी जी को बनिया और मोतीलाल नेहरू को कश्मीरी ब्राह्मण बताया गया है.
हिसाब बराबर करने के लिए कांग्रेस बेचैन थी. उसको ज्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ा. भाजपा की चंड़ीगढ़ ईकाई की वेबसाइट पर देशरत्न, संविधान निर्माता, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को अस्पृश्य बताया गया था. बात यहीं तक रहती तब भी ठीक था. उसमें उनकी जात का भी उल्लेख था. हालांकि ऐसा केवल भाजपा की वेबसाइट में ही नहीं है. अयोध्या सिंह की बहुचर्चित पुस्तक- भारत का मुक्ति संग्राम- सहित तमाम किताबों मे बहुत साफ-साफ शब्दों में इस तथ्य का उल्लेख है. पर जो गलती कांग्रेस ने की थी, वही भाजपा ने भी कर दी थी. वह भूल गई कि बाबा साहेब मूर्तिमान हो चुके हैं. देश में जितनी संख्या में उनकी मूर्तियां लगी हैं, उतनी तो शायद किसी की भी नहीं. सो अबकी कांग्रेस ऊपर थी, भाजपा नीचे. मौके की नजाकत भांपते हुए भाजपा की चंडीगढ़ ईकाई ने आनन फानन में अपनी बेवसाइट से बाबा साहेब की जात वाला हिस्सा हटा दिया.
लेकिन भारत तो ऐसा देश है, जहां की राजनीति में हर बात जात से ही शुरू होती है, और जात पर ही खत्म होती है. और फिर ये तो राजनीति के शलाका पुरुष हैं. कभी कांग्रेस को ब्राह्मणों और भाजपा को (जनसंघ के जमाने से ही) बनियों की पार्टी माना जाता था. माननीय कांसीरामजी ने जात जो फार्मूला दिया, उसकी कामयाबी से भारतीय राजनीति के सारे समीकरण बदल गए. बहनजी भी सर्वसमाज की बात करती हों, पर उनके सर्वसमाज का मतलब क्या है, इसे सब जानते हैं. किस पार्टी का वोट बैंक कौन है, किसी को बताने की जरूरत नहीं है. दलितों के ये दोनों मसीहा मूर्तिमान हो चुके हैं. लखनऊ में बहनजी की आदमकद मूर्ति देखी जा सकती है. उम्मीद है, भविष्य में कम से कम वह गलती नहीं दुहराई जाएगी, जो इस मामले में कांग्रेस और भाजपा कर चुकी हैं.
भाई रामबिलास पासवानजी,  मुलायम सिंह यादवजी और लालू प्रसाद यादवजी ने भी जात के जादू से भारतीय राजनीति में नई इबारत लिखी. जब तक ये लोग मूर्तिमान नहीं हो जाते, तब तक, जो चाहे इनकी जात से खुद को जोड़ सकता है. अगर किसी समर्थक या चेले ने मूर्ति बनवा दी, तो फिर इनकी जात का जिक्र करना भी अपराध हो जाएगा. अगर आपमें से किसी को इनकी मूर्ति लगने की कोई जानकारी हो, तो उसे जरूर शेयर कीजिए. वरना न जाने कौन कब...

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

जीते अन्ना, हार गया भारत

अजीब संयोग है. आठ दिनों के भीतर ही दो बार जीत मिली. दोनों ही जीत का सबब बना महाराष्ट्र शनिवार, तारीख थी दो अप्रैल, 2011. दुनिया भर की नजरें मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम पर टिकी हुई थीं. हर कोई दिल थामकर बैठा था. जैसे जैसे रात गहरा रही थी, धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. पर आधी रात से पहले अच्छी खबर आ गई. लोग जश्न मना रहे थे. भारत जीत गया था. श्रीलंका को हराकर विश्व विजेता बन गया था. शनिवार, तारीख नौ अप्रैल. पूरे आठ दिन बीत गए पर एक पल भी ऐसा नहीं हुआ, जब महाराष्ट्र चर्चा में न रहा हो. यह जरूर कह सकते हैं कि नायक बदल गए पर सेहरा बंधा मराठी मानुस के सिर ही. पिछले शनिवार अगर 37 के सचिन कंधे की सवारी कर रहे थे, तो अगले शनिवार को महफिल लूटी 73 के अन्ना हजारे ने. पहले शनिवार को अगर भारत जीता तो दूसरे शनिवार को अन्ना जीते.जीत के लिए सचिन को बधाई मिली थी, अन्ना भी बधाई के हकदार हैं. हैट्स आफ सचिन, अन्ना को गांधी टोपी मुबारक. आप गांधीजी के बताए रास्ते पर चलते हैं. अहिंसा और उपवास में आस्था है. दुनियाभर में लोग गांधवादी के तौर पर ही जानते-पहचानते हैं. गांधी खानदान के इशारों पर चलने वाली सरकार को हिलाने के लिए आप सरीखे महान गांधीवादी ने गांधीजी के उपवास वाले अस्त्र का सहारा लिया. कामयाब भी रहे. अब तो आपको आधुनिक गांधी बताया जा रहा है.भारत के इतिहास में थोडी़ भी रुचि रखने वालों ने 1922 के चौरी-चौरा कांड के बारे में जरूर सुना होगा. जिनकी रुचि बिल्कुल नही, उन्हें बता रहा हूं. अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ पूरा देश असहयोग आंदोलन कर रहा था. लोगों का गुस्सा किस कदर उफान पर था, इसका अंदाजा इसी घटना के बाद लगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में चौरी चौरा नाम के छोटे से कस्बे में पुलिसवालों ने जब अंग्रेजों के खिलाफ नारेबाजी कर रहे ग्रामीणों को निशाना बनाया, तो भीड़ ने थाने में आग लगा दी. 22 पुलिसवालों की वहीं चिता बन गई. दूसरे दिन जब गांधीजी को इस घटना का पता लगा तो उन्होंने आनन फानन में असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी, जब उस समय वह आंदोलन पूरे ऊफान पर था. सारा देश हैरान. मोती लाल नेहरू, चितरंजन दास जैसे शीर्ष नेताओं को तो कुछ समझ में ही नहीं आया. देश दो राहे पर खड़ा हो गया. सबको पता है, भारत को आजादी के लिए पूरी चौथाई सदी का इंतजार करना पड़ा. अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ा, जबकि वह तो कब का लोकाचार बन चुका है. सरकार यह बात अच्छी तरह जानती थी. सो उसे भ्रष्टाचार से कोई डर नहीं था. वह डर रही थी अन्ना से. उनके उपवास से. अन्ना को लग रहा था कि लोग उनके साथ खड़े हैं, जबकि लोग जुटे थे उस लोकाचार के विरोध में, जो अब अभिशाप का रूप लेता जा रहा है. देशभर में मोमबत्ती मार्च हो रहा था. क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या बच्चे, क्या महिलाएं. अभिशाप ने सबको परेशान कर रखा था. सबका गुस्सा बाहर आने को बेकरार था. ईमानदार छवि वाला कोई भी आगे आता, नायक बन जाता. शुक्रवार शाम से डील की सुगबुगाहट होने लगी. बताया जाने लगा कि सरकार ने अन्ना की सभी मांगे मान ली हैं. बस औपचारिक आदेश का इंतजार है. अगली सुबह आदेश आ गया. अच्छा हुआ कि छोटी सी बच्ची ने जूस पिलाकर अन्ना का उपवास खत्म कराया, वरना जिस तरह से टेलीकाम मंत्री कपिल सिब्बल सरकार की तरफ से मोर्चा संभाले हुए थे, उससे तो यही लग रहा था कि उपवास तोड़वाने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही सौंपी जाएगी. यह वही कपिल सिब्बल हैं, जिन्हें पौने दो लाख करोड़ का टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला नजर ही नहीं आता, जबकि भारतीय इतिहास में इसे सबसे बड़ा घोटाला बताया जा रहा है. बात यहीं तक रहती तो भी ठीक था. यह विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार की नकेल कसने के लिए प्रस्तावित लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली साझा समिति में भी सिब्बल साहब को जगह दी गई. 90 साल बाद इतिहास ने खुद को दोहराया है. देश एक बार फिर दो राहे पर खड़ा है. उसने क्या सोचा था और क्या हासिल हुआ. हालांकि परेशान होने जैसी कोई बात नहीं है. कानून बन जाने से ही अगर अपराध खत्म हो जाते, तो फिर हत्या और बलात्कार जैसी जघन्य घटनाएं कब की इतिहास बन चुकी होतीं. देश को अभी और इंतजार करना होगा. संभव है कानून का कोई विकल्प आ जाए. अन्ना आप जीत गए. सरकार भी जीत का दावा कर रही है, पर भारत हार गया

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

पटरी नहीं दिलाती मंजिल

रेल की पटरी मंजिल तक पहुंचा देती है. यह सत्य है. लेकिन यह आप पर है कि इसे अर्ध सत्य समझते हैं या पूर्ण सत्य. मैं तो इसे अर्ध सत्य मानता हूं. अलबत्ता, ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है, जो इसे पूर्ण सत्य मानते हैं. अखबारों में ऐसी खबरें महीने में एक-दो बार पढ़ने को जरूर मिल जाती हैं कि पूरे परिवार ने रेल की पटरी पर जान दे दी. विवाहिता या फिर किसी युवक का शव पटरी पर पड़ा मिला. वे जान देने आए थे, जान दे दी. उन्हें मंजिल मिल गई.

एक पहेली बचपन से सुन रहा हूं.लोग पूछते हैं पहले मुर्गी आई या अंडा. कोई कहता है पहले मुर्गी आई तब अंडा, कोई कहता है पहले अंडा आया, मुर्गी उसी में से निकली. अब यह न पूछिएगा कि इस पहेली का यहां क्या मतलब है. वैसे, मैं बताए दे रहा हूं. यह कोई पहेली नहीं कि रेल की पटरी पहले आई या ट्रेन. निश्चित तौर पर पहले ट्रेन आई और उससे भी पहले आया इंजन. भाप की ताकत पहचानी जेम्स वाट ने, स्टीवेंसन ने बनाया इंजन. पटरी का नंबर तो सबसे बाद में आया. मंजिल दिल्ली हो या कोलकाता. मुंबई हो या गोरखपुर ट्रेन पहुंचा देती है.

पिछली सदी के आखिरी दशक में बोतल से दो जिन्न निकले थे. पहले को जितने लोगों को लीलना था, लील कर खामोश हो गया, बचा रह गया दूसरा. जो आग तब उसके मुंह से निकली थी, वह रह-रह कर जब-तब भड़कती रहती है. कोई भरोसा नहीं कि किसको लील लेगी. सरकार रेवड़ी बांटकर आग बुझाने की कोशिश करती है. जिसको मिल जाता है, वह शांत हो जाता है, जिसे नहीं मिलता, वह जीना हराम कर देता है. बुरा हो सरकारी रेवड़ी का. उसने ऐसी आदत खराब की कि गाहे-बगाहे लोगों की उसके लिए लार टपकने लगती है. हर कोई चाहता है कि रेवड़ी उसे भी मिल जाए.

बात यहीं तक रहती तो ठीक था, पर रेवड़ी को तो हक मान लिया गया, इससे किसी को इंकार नहीं कि हक मांगना चाहिए. आसानी से न मिले तो छीन भी लेना चाहिए, लेकिन दूसरों का सुख चैन छीनने का हक तो किसी को नहीं.

रेवड़ी के लिए 20 साल पहले जो आपाधापी शुरू हुई थी, उसका सिलसिला थमा नहीं है. दो साल पहले राजस्थान का आंदोलन भूला नहीं होगा. लोगों का आना-जाना मुहाल हो गया था. रेल लाइनें ठिकाना बन गई थीं. अब किसी को दिक्तत हुई हो, तो हो. उनकी बला से. उन्हें क्या, उन्हें तो बस हक चाहिए था.

याद कीजिए.पिछले साल दिसंबर का आखिरी हफ्ता. कितने ही लोगों का गांव-घर जाकर सर्दियों की छुट्टी मनाने का सपना, सपना ही रह गया. कोई नए साल के जश्न में शामिल नहीं हो पाया, तो कोई इलाज के लिए दिल्ली-मुंबई के बड़े अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाया. न जाने कितने लोगों ने दम तोड़ दिया. इसके अलावा न जाने किसके-किसके क्या-क्या जरूरी काम रह गए, इसका कोई हिसाब नहीं है. कई दौर की वार्ता के बाद ही रेल की पटरियां खाली हो सकी थीं.

पर यह क्या.अभी दो महीने बीते ही थे कि अचानक काफूरगंज सुर्खियों में आ गया और सबका सुखचैन काफूर कर गया. रेल की पटरियां फिर बन गईं ठिकाना. दादी-ताई तो वहीं चूल्हा चौका ले आईं. पटरी पर रोटियां सिंकते तो टीवी पर देखा ही होगा. दादा, ताऊ वहीं गुड़गुड़े खींचने लगे. वहीं लग गई चौपाल. वहीं बैठे-बैठे दिल्ली का हुक्का- पानी बंद करने की धमकी दी जाने लगी.

सरकार कान में तेल डालकर बैठी थी. लोगों का तेल निकला जा रहा था. 13 दिनों तक रेल की पटरी बंधक बनी रही. अच्छा हुआ कि हाईकोर्ट बीच में आ गया, और लट्ठ पर डंडा भारी पड़ा. हम अदालती डंडे की बात कर रहे हैं. वह पुरानी कहावत तो सुनी ही होगी. वही तेरहवीं वाली. अदालत को शायद वह याद आ गई थी, सो उसने तेरहवें दिन तेरहवीं करा दी. अगले कुछेक घंटों में रेल की पटरी आजाद हो गई.

यह बात अच्छी तरह समझ ली जानी चाहिए कि लोग जिसे पूर्ण सत्य समझ रहे हैं, वह अर्ध सत्य है. पूर्ण सत्य यह है कि पटरी पर बैठने-लेटने या चलने से मंजिल नहीं मिलती. रेल की पटरी, ट्रेन के चलने के लिए बनी है. और ट्रेनें ही मंजिल तक पहुंचाती हैं. जब तक ट्रेन नहीं होगी, तब तक मंजिल नहीं मिलेगी. इसलिए बेहतर है, वह ट्रेन तलाशी जाए, जो मंजिल तक पहुंचा सके. पटरी पर सोने, जागने से लोग सिर्फ परेशान होंगे. बाकी किसी को कुछ नहीं हासिल होने वाला.


मंगलवार, 1 मार्च 2011

अथश्री 'राजा राम' कथा

डीआर और आरडी में आजकल पैसे को लेकर जंग छिड़ी हुई है. डीआर-वही, दिग्गी राजा यानी दिग्विजय सिंह. और आरडी को तो समझ ही गए होंगे. नहीं, अरे गलती से भी कभी सुबह-सुबह टीवी नहीं खोला क्या, वरना अनुलोम-विलोम और कपालभाती कराते उन्हें जरूर देखा होता. हां भइया, रामदेव बाबा की बात कर रहे हैं. अब आप कहेंगे कि डीआर और आरडी के बीच पैसा कहां से आ गया तो बताए देते हैं. हम कालेधन की बात कर रहे हैं.
 
डीआर रियासत के मालिक रहे, सूबे के सीएम रहे. पूरी जवानी बिताई एमपी में, उमर बढ़ी तो चले आए दिल्ली. वहां भी चैन नहीं मिला तो यूपी में जमीन तलाशने लगे. ऐसा नहीं है कि एमपी में उनके पास जमीन-जायदाद की कमी थी. पर उन्हें मालूम है कि यूपी फिट तो दिल्ली हिट. अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं आई कि उनके पास कालाधन है पर जिस गांधी-नेहरू खानदान के लिए वह सियासत करते हैं, जिनके लिए कुछ भी बोलने में उन्हें परहेज नहीं होता, उस पर कालाधन रखने का आरोप जब तब जरूर लग जाता है. फिलहाल, जो कोई कालेधन को लेकर आरोप लगाता है, डीआर के निशाने पर आ जाता है.
 
आरडी को भी कौन समझाए, योग की शिक्षा देते रहते. लेकिन ओपन स्काई क्लास हिट हुई तो गुरुभाई को दवा के कारोबार में लगा दिया. पर यह क्या. जैसे जैसे दवा की, बीमारी बढ़ती गई. योग सिखा दिया, दवा खिलवा दी तो स्वाभिमान जोर मारने लगा. बना डाला भारत स्वाभिमान मंच.
 
भारत को तो वैसे भी गुरुओं का देश कहा जाता है. फिर वह तो योगगुरु हैं. मांग कर डाली कि गांधी-नेहरू खानदान का जो काला धन स्विस बैंक में जमा है, उसे वापस लाया जाए. देश हित में उसका इस्तेमाल किया जाए. बस यहीं बात चुभ गई.
 
डीआर कहने लगे, कोई भी जरूरी बात होती है, तो उन्हें खबर जरूर दी जाती है. जिस तरह 26/11 फेम करकरे ने हिंदू आतंकवादियों से जान के खतरे के बारे में फोन करके बताया था, उसी तरह शायद स्विस बैंक के चेयरमैन ने भी बताया है कि गांधी-नेहरू खानदान का कोई अकाउंट नहीं है. ऐसे में काले धन की बात तो सोची भी नहीं जानी चाहिए. और तो और, उन्होंने आरडी को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया. पूछ लिया कि इतना पैसा कहां से आया. कितना काला है, कितना सफेद. आजकल अनुलोम-विलोम की क्लास में आरडी को बाकायदा सफाई देनी पड़ रही है कि किसी भी बैंक में उनका खाता नहीं है. जो कुछ भी उनका बताया जा रहा है, वह सब उनके पीठ या आश्रम का है. जो भी चढ़ावा आता है, चंदा मिलता है, उसका बाकायदा लिखत में हिसाब रखा जाता है.
 
वैसे भी मठों, आश्रमों, मंदिरों के पास अकूत संपदा का पुराना इतिहास रहा है. लोग-बाग श्रद्धा से न जाने क्या क्या और कितना कुछ दान करते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं. फिर, अगर ज्यादा गड़बड़ी मिली तो सरकार के पास मंदिरों-मठों-आश्रमों को अपनी तरह से ठीक करने का विकल्प खुला रहता है. अब यह क्या बात हुई-किसी ने कहा आप चोर हैं तो उलट कर पूछ लिया क्या आप ईमानदार हैं. अरे आप भी तो चोर हैं. यानी अगर सामने वाला भी चोर है, तो चोरी गलत नहीं. असल में कोई काम गलत तभी होता है, जब उसे कुछ लोग ही कर रहे होते हैं. जब गलत काम करने वाले ही ज्यादा हों, तो यह मान लिया जाना जाता है कि उसे सामाजिक मान्यता मिल गई है.
 
आरडी से अनुरोध है कि काले धन को लेकर सवाल पूछने का विचार छोड़ दे. अगर उनके पास नहीं है, तो तलाशें जुगाड़ और अगर है तो लगाएं जोर से दहाड़.

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

पे-टेंट का पेटेंट

पेटेंट. अंग्रेजी भाषा का यह शब्द जब पहली बार सुना था, तब इसका ठीक-ठीक मतलब पता नहीं था. अच्छी तरह से याद है, पिताजी ने अपने तई समझाने की पूरी कोशिश की थी. तब उम्र बहुत कम थी, सो ज्यादा ‘विजुअलाइज’ नहीं कर पाया था. समय बीतता रहा. कभी बासमती, कभी तुलसी और कभी नीम के पेटेंट की खबरें कान में पड़ती रहीं. लोग बताते कि पेटेंट अमेरिका में ही होता है. उसके इस्तेमाल के लिए उनकी इजाजत लेनी होगी. यहां अपने देश में ऐसा कोई दफ्तर नहीं, जहां रजिस्ट्रेशन की तरह पेटेंट कराया जा सके.
वक्त बदला, हिंदुस्तान ने तरक्की की तो यहां भी पेटेंट होने लगा. अब गाहे-बगाहे किसी न किसी चीज के पेटेंट की खबर आ जाती है. एक दिन अचानक सोचने लगा कि अंग्रेजी भाषा का- पेटेंट- हिंदी व्याकरण के हिसाब से दो शब्दों पे और टेंट से मिलकर बना हो सकता है. हिंदी में इन दोनों शब्दों के अलग-अलग मायने देखें तो यही कि ‘भुगतान करो और छोलदारी या तंबू ले लो.’
अलगाववादियों, आतंकवादियों और उनके नए नवेले-संस्करण यानी नक्सलियों ने पेटेंट को शायद इसी तौर पर लिया. बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि पे-टेंट का उन्होंने पेटेंट करा लिया. यानी भुगतान भर की कुव्‍वत जुटाओ और अपनी छोलदारी ले लो. सिक्का कौन-सा चलेगा और छोलदारी कैसी होगी, अब यह तो उन्हें ही तय करना था. सो, तय हो गया कि जब किसी साथी को छुड़वाना होगा, किसी का अपहरण कर लेंगे. सरकार तो झुकेगी ही.
मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाली देश के गृहमंत्री की बेटी के अपहरण से शुरू हुए इस सफर ने सरकारी ‘बाबुओं’ तक का रास्ता तय कर लिया है. अब मामूली से मामूली आदमी या कामगार तक को सतर्क हो जाना चाहिए. न जाने कौन, कब, किसी की नजर में चढ़ जाए. न जाने कब, किस पर उनका ‘दिल आ जाए.’ हालांकि अगर ऐसा होता है, तो भी बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं. सरकार कोई न कोई इंतजाम जरूर करेगी. हां, अगर किस्मत रूपन कात्याल जैसी हुई, तो बात अलग है. याद है न, आईसी-814. बेचारा... उतने लोगों में बस वही अकेला था, जिसकी जान गई. उम्मीद है किस्मत और किसी के साथ सौतेला बर्ताव नहीं करेगी.
तकरीबन दो दशक पहले यानी 1989 के दिसंबर महीने में जब तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का कश्मीर में अपहरण हुआ, तो देश भर में सनसनी फैल गई थी. लोगों का लगा कि गृहमंत्री नहीं, देश की बेटी का अपहरण हो गया है. आतंकवादी उसका न जाने क्या हाल करेंगे? सत्ता के गलियारों में उस समय क्या हाल था, उसका तो बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है. आतंकवादियों ने कहा- बेटी चाहिए तो हमारे साथियों को रिहा करो. बस वहीं से शुरू हुआ झुकने-झुकाने का खेल. रूबिया तो आजाद हो गईं, पर बदले में हामिद शेख, मोहम्मद अलताफ, शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल जैसे पांच दुर्दांत आतंकियों को भी आजादी मिल गई. बहरहाल, बेटी घर लौटी, तो देश ने सुकून की सांस ली. भले ही उसके लिए कुछ भी करना पड़ा.
आतंकवादियों ने दस साल की खामाशी के बाद 1999 में एक बार फिर वही नुस्खा अपनाया. इस बार हत्थे चढ़े विमान यात्री. विमान सेवा आईसी-814 को पहले काठमांडू ले जाया गया, फिर उसमें सवार चालक दल समेत सभी 189 लोगों का अपहरण कर लिया गया. आतंकवादी विमान को कांधार ले जाने से पहले थोड़ी देर के लिए अमृतसर में रुके भी, पर सरकार सोई रही. कांधार हवाई अड्डे पर क्या तमाशा हुआ, तमाम लोगों को अच्छी तरह याद होगा. साथियों की रिहाई के लिए आतंकियों ने विमान यात्रियों को कई बार डराया-धमकाया. दिल्ली में सोती-जागती सरकार की स्थिति एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई वाली हो गई थी. समय बीत रहा था, पर यह तय नहीं हो पा रहा था कि करना क्या है? फिर याद आया- अरे जब एक बेटी के लिए झुक गए थे, तो 188 लोगों के भरे-पूरे परिवार के लिए तो .... वैसे भी हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां परंपराओं का विशेष महत्व है. फिर इस परंपरा का ध्यान भला क्यों नहीं रखते? सो 188 लोगों की जान में जान डालने के लिए केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को बाकायदा कांधार भेजा गया. आज सवाल पूछा जा सकता है कि जसवंत जी को जिन्ना प्रेम की प्रेरणा कहीं इसी यात्रा से तो नहीं मिली? लोग खुश, आतंकी भी खुश. मौलाना मसूद अजहर, अहमद जरगर और शेख अहमद उमर सईद जैसे साथी आजाद हो गए. अब अगर कात्याल की किस्मत खराब थी, तो उसमें किसी का क्या कसूर. फिर इसमें बुराई भी क्या है? गौर कीजिए, तो यही लगता है कि जब से सरकारों के साथ गठबंधन शब्द जुड़ा, झुकना रिवायत बन गई. वरना पहले तो एक पार्टी की सरकार ही हुआ करती थी.
इस बीच आतंकी और नक्सली डराने या आतंक पैदा करने वाली तमाम दूसरी वारदातों को तो अंजाम देते रहे, पर अपहरण की कोई ऐसी वारदात नहीं हुई, जो राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बनती. लोगों को चिंता होने लगी. पूरा दशक बीत गया तो लगा कि शायद कोई नया नुस्खा ईजाद कर लिया गया होगा. पर पिछले हफ्ते मलकानगिरी के जिला कलेक्टर विनील कृष्णा को नक्सलियों ने अगवा किया तो एक बार फिर से लगा कि अभी वह तकनीक पुरानी नहीं पड़ी है. और विनील की रिहाई के बाद तो नक्सलियों को भी ऐसा ही लगा होगा. उनकी सभी मांगें मान जो ली गई हैं.
अब या तो इस बात का इंतजार कीजिए कि कब किसी आतंकी या नक्सली की नजर में आपकी ‘कीमत’ अचानक बढ़ती है या फिर इस बात का कि वे कोई नया नुस्खा ढूंढ कर लाते हैं. पे-टेंट के ट्रैक रिकार्ड को देखकर तो फिलहाल यही लगता है कि उन्हें इसकी कोई जल्दी नहीं है.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तीसरी क्रांति!

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’- यह कहावत पुरानी जरूर है, पर इसे सीधे और सपाट तरीके से देखें तो यही लगता है कि यह न केवल सोलह आने सच है, बल्कि कभी पुरानी भी नहीं पडने वाली. यानी बात जब-जब निकलेगी, दूर तलक जाएगी. पर बात और आग ने कब दोस्ती कर ली? दोस्ती भी ऐसी, कि उसकी दुहाई दी जाने लगी. कहा जाने लगा कि बात निकलकर दूर तलक जा सकती है, तो आग क्यों नहीं? आग भभकेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.

आग मिस्र में लगी, उसने हुस्नी मुबारक को झुलसा दिया और लोग हैं कि एक-दूसरे को मुबारकबाद दे रहे हैं. वाह रे मुबारक साहेब! ऐसा तो कभी नहीं सोचा होगा आपने. आपके जलने और झुलसने का लोगों को जैसे शिद्दत से इंतजार रहा हो, तभी तो जश्न मना रहे हैं, मुबारकबाद दे रहे हैं. ऐसी कौन-सी गुस्ताखी हो गई, जिसका आपको ही पता नहीं लगा.

कहा जा रहा है कि मिस्र के लोग लोकतांत्रिक सुधारों की मांग कर रहे थे. भ्रष्टाचार से आजिज आ गए थे. अरे भाई, लोकतांत्रिक सुधार की इजाजत देते, उनको अमली जामा पहनाते तो काहे की दिक्कत आती. भ्रष्टाचार कुछ खास लोगों तक सीमित रहेगा तो हो-हल्ला मचेगा ही. सब भ्रष्टाचार कर रहे होते तो कुछ नहीं होता. सब मौज-मस्ती कर रहे होते. अमन चैन होता. आप भी खुश, लोक भी खुश. आखिर इतने सालों तक तो लोगों को आप अच्छे लग ही रहे थे.

आग का भी क्या कहा जाए. जंगल की आग..सॉरी, झाड़ी की आग की तरह जा गिरी खाड़ी में. ट्यूनीशिया तो पहले ही खाक हो चुका, मिस्र दहक रहा था, देखते ही देखते अरब भी चपेट में आ गया. यमन और जार्डन में भी तपिश महसूस की जाने लगी. वहां भी लोग भ्रष्टाचार से आजिज थे. वहां भी लोकतांत्रिक सुधारों की मांग हो रही थी. वहां पेट्रोल मौजूद था. कमी थी बस जलती तीली की. मिसाइल की तरह मिस्र से निकली आग, खाड़ी के पेट्रोल पर तीली की तरह जा गिरी.. फिर तो उसे भभकना ही था.

अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. झुलस रहे देशों से गुजारिश है कि हिंदुस्तान की तरफ देखें. हिंदुस्तान से बड़ा लोकतंत्र कौन-सा है. फिर यहां तो भ्रष्टाचार को भी बुरा नहीं माना जाता. इसमें शर्म काहे की. हिंदुस्तान से तो वैसे भी बहुत पुराना नाता रहा है. जब कभी प्राचीन सभ्यता की बात होती है, तो भारत के साथ-साथ मिस्र का जिक्र जरूर आता है. और मिस्र ही क्यों, खाड़ी के देश भी हिंदुस्तानियों के लिए दूर नहीं रहे. हजारों-लाखों हिंदुस्तानी वहां रहते हैं. इसी से वहां का असर यहां देखने को मिल रहा है. वहां पेट्रोल में आग लगी. यहां हिंदुस्तान में पेट्रोल नहीं, तो उसकी कीमतों में ही आग लगी जा रही है.

मान लो भइया, हिंदुस्तान को गुरू. हिंदुस्तानी तो पहले से मुगालता पाले हुए हैं कि उनके देश को ‘विश्व गुरु’ का दर्जा हासिल था. यह दीगर बात है कि भारत का लिखित इतिहास इसकी पुष्टि नहीं करता. हालांकि अभी भी जब-तब पढऩे-सुनने को मिल जाता है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत फिर से विश्व गुरू बनेगा.

भारत, खासतौर पर आधुनिक भारत के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले जानते हैं कि यहां पिछले दो सौ सालों में दो क्रांतियां हुईं. पहली-1857 में, जिसे इतिहासकारों ने ‘सैनिक’ (सिपॉय) शब्द तक सीमित करने में कोई कसर बाकी नहीं लगाई. इसमें खून-खराबा तो हुआ, पर यह क्रांति महज पुरानी दिल्ली तक सिमट कर रह गए आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की रियासत और तकरीबन तीन सौ सालों तक हिंदुस्तान पर राज करने वाली मुगलिया हुकूमत के खात्मे का सबब बनी. फिरंगी और दमदारी से यहां काबिज हो गए. और पूरे 90 सालों तक उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा.

दूसरी क्रांति के अगुवा बने जेपी यानी जयप्रकाश नारायण. 1974 में कांग्रेस सरकार के खिलाफ उन्होंने ‘समग्र’ क्रांति का नारा दिया. 1857 का सच जानने के लिए तो महज किताबें ही हैं, पर 1974 देखने वाले तो तमाम लोग तो अभी बुजुर्ग भी नहीं हुए हैं. उन सभी को याद होगा कि दूसरी क्रांति का क्या हश्र हुआ. थोड़े दिनों के लिए जरूर जनता की पार्टी यानी जनता पार्टी का शासन आया, पर चूंकि राज करने की उन्हें आदत नहीं थी, सरकार चलाने के लिए ‘जरूरी योग्यता’ नहीं थी, लिहाजा जल्द ही लोगों का मोह भंग हो गया. और फिर से आ गया इंदिराजी का राज. देश हित में वह बलिदान हो गईं तो राजीवजी आए. वह गए तो बीच में न जाने कितने आए-गए, तमाम लोगों को तो उनका क्रम भी ठीक से याद नहीं होगा. हां अटल जी ने जरूर अपनी यादें छोड़ीं. फिर सत्ता में आई संप्रग और उसके नेता बने मनमोहन सिंह.

अब इसे क्या कहा जाए कि जब एक तरफ मनमोहन सिंह के सत्ता में रहने का रिकार्ड गिनाया जा रहा है, तभी दूसरी तरफ मिस्र और खाड़ी देशों के हाल से लोगों का जोश उफान मार रहा है. मिस्र में तहरीर चौक पर टैंक और टैंक पर सवार जनता को लोगों ने टीवी स्क्रीन पर पिछले हफ्ते कई बार देखा. सडक़ पर टैंक देखकर चार-पांच साल पहले पड़ोसी देश नेपाल में हुई क्रांति की याद भी उनके जेहन में ताजा हो गई. हिंदुस्तानियों को लग रहा है कि तीसरी क्रांति का वक्त आ गया है. अब ‘संप्रग’ क्रांति होनी चाहिए. पर यह मिस्र नहीं, हिंदुस्तान है. यहां तो जिसके खिलाफ क्रांति होती है, वही और मजबूत होकर उभरता है. वैसे भी जिस देश की जनता का महज लाल पगड़ी देखकर ही गांव छोडक़र भाग जाने का इतिहास रहा हो, टैंक देखकर उसका क्या हाल होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. इसलिए संप्रगवालों, निश्चिंत रहिए. मौज-मस्ती कीजिए. भ्रष्टाचार को लोकाचार बने रहने दीजिए. अव्वल तो क्रांति होगी नहीं, और अगर होती भी है तो वह संप्रग के हित में ही होगी.

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अब नहीं डरती मछलियां


दफ्तर से घर पहुंचा ही था कि आठ साल का मेरा भतीजा दौड़ता हुआ आया. बोला, एक सवाल पूछना है ताऊजी. उसे जैसे बस मेरे घर आने का इंतजार था. मैंने कहा, हाथ-मुंह धो लूं, फिर पूछना. लेकिन इतना इंतजार... बच्चा जो ठहरा. एक ही सांस में बोल गया, हाथ लगाने से मछली क्यों नहीं डरती? पानी से बाहर निकालने पर क्यों नहीं मरती? तुरंत जवाब नहीं सूझा तो मैंने कहा, थोड़ी देर में बताऊंगा.
 
सोचने लगा, अचानक इसे मछली की याद कहां से आ गई? कहीं किसी मुहावरे की तो बात नहीं कर रहा? हिंदी की कोई किताब तो इसके हाथ नहीं लग गई. आखिर ऐसा सवाल इसके दिमाग में आया कहां से? मन बचपन की तरफ डग भरने लगा. महाभारत वाले अर्जुन की नजर मछली की आंख पर थी, पर मेरी आंखों के सामने साबुत मछली थी.
 
उस मुहावरे का ख्याल आया, बड़ी मछली छोटी मछलियों को खा जाती है. हो सकता है किसी बड़ी मछली ने छोटी मछलियों को खा लिया हो, अंत में बड़ी वाली ही बची होगी, सो हाथ लगाने से भला क्यों डरेगी. पानी से बाहर निकालेंगे तो तुरंत क्यों मरेगी. भतीजे की जगह किसी बड़े ने यही सवाल किया होता तो और भी मुश्किल हो जाती. फिर तो यही होता, न जाने किस मछली की बात कर रहे हैं.
 
ड्राइंगरूम के एक्वेरियम में तैरने वाली मछलियों की, सिन्हा साहेब के लॉन में बने पॉंड में इठलाती मछलियों की, या ताल-तलैया, नदी और समुंदर वाली मछलियों की. खैर जब इस मुहावरे में कुछ नहीं मिला तो मछलियों से जुड़े दूसरे लोकप्रिय मुहावरे की तरफ ध्यान गया. एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. हो सकता है गंदी हो गई मछलियों ने डरना छोड़ दिया हो, मरना भूल गई हों.
 
कहीं गंदी मछलियों के बारे में तो नहीं पूछ रहे हैं. ऐसा है तो समाज पर नजर डालनी होगी. नेता-अभिनेता दोनों को समाज का प्रतिनिधि माना जाता था. दोनों का बहुत ग्लैमर हुआ करता था. लोग एक झलक पाने को बेताब रहते थे. बुरा हो छोटे पर्दे वालों का, हर प्रोग्राम में खासतौर पर बुलाकर इन्हें आम बना दिया. कभी इज्जत को लेकर लोग डरते थे, बेशर्म न हुए तो मरते थे, पर समय ने सारा समाजशास्त्र बदल दिया. पकड़े गए, जेल गए, छापा पड़ा, घर से नगदी बरामद हुई- समझो इज्जत बढ़ गई. समाज में रुतबा बढ़ गया. थोड़ा और नाम हुआ तो माननीय बनना पक्का.
 
बेशर्मी की बात क्या करें. उसकी कोई हद नहीं है. कभी खबर आई कि बिपाशा ने बदन उघाड़ू शाट्स दिए हैं, तो कभी पता लगा कि मंदिरा ने किसी विज्ञापन के लिए टॉपलेस पोज दी है. बिकनी देखते-देखते 40-50 साल हो गए. अब तो मल्लिका भी पीछे छूट गई. आंख से काजल चुराने की तरह उनके सिर से मल्लिका-ए-बेशर्मी का ताज न जाने कब और किसने उड़ा दिया. शोले का वह डायलाग वाकई पुराना हो गया, जो डर गया, समझो मर गया. दलेर साहेब को भी छुई-मुई गाए बहुत दिन हो गए. अब मछलियां न तो डरती हैं, न मरती हैं.

कहते हैं सिनेमा समाज का दर्पण होता है. यानी सिनेमा में वही होता है, जो कुछ समाज में चल रहा है. नए जमाने का सिनेमा बताता है कि इश्क कमीना हो गया. पप्पू साला काम से गया. लोग गुनगुनाने हैं- पप्पू कांट डांस साला, पप्पू नाच... अच्छी तरह याद है, जब हिंदी फिल्मी गीतों को उनके बोल के लिए ही जाना जाता था. पचास और साठ के दशक के तमाम गाने अभी तक जुबान से उतर नहीं पाए तो उसकी वजह उनके बोल भी हैं. कवि प्रदीप, इंदीवर, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदांयूनी को कैसे भूल सकते हैं. अमर गीतकार, अमर गीत.

हिंदी फिल्मी गीतों का अब भी बहुत जोर है. इसकी वजह भी उनके बोल ही हैं. मुन्नी बदनाम हुई पर पूरी दबंगई के साथ. शीला की जवानी भी रोके नहीं रुक रही. वो तो अच्छा हुआ कि तीस मार खां ने पहले ही हाथ आजमा लिया, वरना हमारे जैसे लोग तो यही सोच रहे थे कि मुन्नी बदनाम हुई तो क्या हुआ, अब शीला जवान हो गई है. कल कोई और बीना या गीता अपना जलवा बिखेरने आएगी. अब शीला और मुन्नी की वजह से किसी लडक़ी ने जान देने की कोशिश की, किसी ने स्कूल से नाम कटवा लिया या किसी ने मुकदमा कर दिया तो उसमें गाने का क्या गुनाह.

बहरहाल, जब कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने भतीजे को बुलाकर कहा, भई सवाल बहुत मुश्किल है, मुझे इसका जवाब नहीं मिला, तुम खुद ही बता दो. बोला बहुत सिंपल है. मेरे दोस्तों ने एक नई पोयम लिखी है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है. मुन्नी हुई पुरानी है, शीला की जवानी है. मछली का डरना और मरना हम लोगों को अच्छा नहीं लग रहा था. मैंने कहा चलो, अच्छा हुआ मुन्नी और शीला ने मछलियों को डरने-मरने से बचा लिया, वरना अभी तक तो पीपल फॉर एनिमल वाली बहूजी का ध्यान भी इनकी ओर नहीं गया था. 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

यूपीए-2 को लूट लेगा पी-2!

हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने...'  क्या लूट थी वो लूट, बजाए आंसू बहाने के, अफसोस जताने के, लुटने वाले खुश कि किसी ने लूटा तो सही. इस गाने ने शिल्पा शेट्टी को शायद बहुत हिम्मत दी, तभी तो चली आईं थीं खुले आम, यूपी, बिहार लूटने. सिपहसालारों को लगा-जब लुटने, लुटाने और लूटने का खेल इतना निराला है तो क्यों ने चलकर सरकारजी को सुझाया जाए.शिल्पा लूट सकती हैं, तो सरकार क्यों नहीं. चले गए सरकार बहादुर के पास-हुजूर, कितना अच्छा हो, सरकार खुद लूटे. ऐसा संभव नहीं तो लूट का लाइसेंस जारी करे. आइडिया अप्रूव. फटाफट आदेश तामिल हो गया. लाइसेंस लीजिए, खुलकर लूटिए. इतना बड़ा देश. इतनी ज्यादा आबादी. इतना बड़ा बाजार. इतने ज्यादा खरीदार. यानी इतने ज्यादा लुटने वाले. लूटने वाले तो जोड़-घटाना करते रहते हैं, उन्हें अपने संभावित बाजार-खरीदार का पता होता है. आदेश निकलते ही लाइसेंस लेने की होड़ मच गई. बच्चा बच्चा राम का, जन्म भूमि के काम का की तरह हर एक को पता लग गया कि पैसे दे दो, लाइसेंस ले लो. जगह जगह साइन बोर्ड लग गए-यहां लाइसेंस बनता है. यह बात दीगर है कि आरटीओ आफिस (रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस) के सामने शायद ही कहीं लिखा हो, यहां ड्राइविंग लाइसेंस बनता है. बंदूक का लाइसेंस कहां बनता है, यह भी कम लोगों को मालूम होगा. बेशक चंबल वाले जानते हैं. लेकिन बंदूक किस काम की. लूट में उसका क्या काम? लूट के लिए कोई लाइसेंसी बंदूक का इस्तेमाल थोड़े ही करता है. और यहां तो लूट का ही लाइसेंस मिल रहा है.

ट्रकों की तरह जमाखोर और कालाबाजारिए पीछे लिखवा रहे हैं - बुरी नजर वालों तेरा मुंह काला. बेचारों को कोई अच्छी नजर से नहीं देखता. भाई लोगों ने खूब लूट मचाई. लूट का लाइसेंस सबसे पहले इन्हें मिला तो बाजी कौन मारता. पहले चीटियों की तरह चीनी की मिठास चाट गए. फिर धीरे-धीरे गेहूं, चावल, तेल सबको इनकी नजर लग गई. कोई झाड़-फूंक काम नहीं आई. ओझा-सोखा सब बेकार. बाजार के जानकारों को पता था कि देश की बहुत बड़ी आबादी गरीब है. वह रोटी-नमक-प्याज से काम चला लेती है. रोटी यानी गेहूं पर तो पहले ही नजर पड़ गई थी. बचे थे केवल नमक- प्याज.  नमक पर निशाना साधने में खतरा था. कोई गांधी कहीं नमक बनाने फिर से डांडी चला गया, तब क्या होगा? सो सबसे मुफीद लगा प्याज. देखते ही देखते आसमान छूने लगी प्याज और आंसू बहाने लगी जनता. पर इन्हें क्या? लाइसेंस लिया है लूटने का.

लाइसेंस मिल रहा था तो तेल कंपनियां भला क्यों पीछे रहतीं. सरकार को भी लगा-लूट का लाइसेंस देकर बचा जा सकता है. जनता कोसेगी तो नहीं. फटाफट लाइसेंस दे दिया. फिर क्या था. लाइसेंस आया हाथ, अब डर काहे का. महंगाई की आग में झुलस ही रही जनता पर पेट्रोल छिडक़ दिया. 48 से 58 तक पहुंचने में महज सात महीने लगे. पिछले साल जून में साढ़े तीन रुपये की बढ़ोत्तरी से शुरु हुआ सफर, दिसंबर में दो रुपये 96 पैसे की बढ़ोत्तरी के साथ खत्म हुआ. हां, भई 2010. नया साल- नया सफर. 2011 में जैसे मकर संक्रांति का इंतजार रहा हो. वैसे भी देश के अधिकतर हिस्सों में मकर संक्रांति से एक महीने पहले का समय अच्छा नहीं माना जाता. मकर संक्रांति में सूर्य देव की पूजा होती है, कंपनियों ने आग लगाने के लिए शायद इसीलिए अंधेरा होने का इंतजार किया. ज्यादातर लोगों को तो सुबह अखबार पढक़र मालूम हुआ कि आग लग गई है. 
हवाई जहाजों में भीड़ देखकर तेल कंपनियों को अंदाजा हो गया था कि अमीरों की तादाद लगातार बढ़ रही है. हवाई जहाज तो हवा में आसमान में उड़ते ही हैं, कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की आड़ लेकर उन्होंने एटीएफ की कीमतों को भी आसमान की सैर करा दी. अरे पटेल साहेब, जरा पता कराइए. कोई साजिश तो नहीं हो रही आपकी पार्टी के खिलाफ, आपने विमानन मंत्रालय संभाला तो एटीएफ (विमान का ईंधन) महंगा हो गया. और चीनी से लेकर प्याज तक कोई भी चीज महंगी हुई तो आपकी पार्टी के मुखिया पवार साहेबका नाम आ जाता है. वैसे भी युवराज का बयान तो आपको याद ही होगा.
हेरोडेटस को इतिहास का जनक (फादर ऑफ हिस्ट्री) कहा जाता है. उन्होंने इतिहास के बारे में एक टिप्पणी की थी. इतिहास का एकमात्र सबक यही है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते. (द ओनली लेसन ऑफ हिस्ट्री इज दैट, वी डू नाट टेक एनी लेसन फ्राम हिस्ट्री). लगता है सरकार ने हेरोडेटस की यह टिप्पणी गांठ बांध ली है. उसे पिछले दशक के आखिरी दिनों में दिल्ली की सुषमा स्वराज सरकार का पतन याद नहीं है. सरकारों की बलि लेने का प्याज का पुराना इतिहास रहा है. अब तो प्याज और पेट्रोल मिलकर पी-2 बन गए हैं. यूपीए-2 नहीं चेता तो पी-2 उसे भी लूट लेगा.

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चैट और चट

1.सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बेटी ने कहा, अरे पापा, कल मेरी फ्रेंड अनुष्का ने शादी कर ली. दोनों एक ही हॉस्पिटल में हैं. एकदम चट मंगनी, पट ब्याह. मुझे तो फोन पर अभी उसकी मम्मी ने बताया.

2. शाम को घर लौटा तो रीमा (पत्नी) बोली, तुम शू वगैरह निकालो, मैं जरा मिसेज वर्मा को देखकर आती हूं. दोपहर में चोट लग गई थी. बस चट गए, पट आए.

3.रात में डाइनिंग टेबल पर बैठा तो बेटा बोला, आज मेरे दो दोस्त आए थे, हम लोगों सारे बिस्कुट चट कर गए. मम्मी ने बहुत डांटा, आप कल और ला दीजिएगा पापा.

4. अरे यार, हर हफ्ते ये संडे क्यों आ जाता है. दिन भर घर में बैठे-बैठे चट जाता हूं.मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तीनों एक साथ बोले. दिन भर कंप्यूटर से चिपके  रहते हो, चैट करते हो तब कुछ नहीं होता. एक दिन घर में हो तो चट गए. वाह ये क्या बात हुई. वाकई बहुत निराला है चट.

मैं सोचने लगा. बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. घर से बाहर दिन भर, जितने लोगों से मिल लो. सोशल नेटवर्किंग कर लो, चैट कर लो. लेकिन पूरे दिन घर में... बहुत मुश्किल है. बोर हो जाता हूं. चट जाता हूं.

ऑफिस में दोस्तों से यह सब शेयर किया कहने लगे. बिल्कुल यार.पर हम लोगों ने कभी गौर ही नहीं किया. बात बिल्कुल ठीक है. ऐसा क्यों हो रहा है. पहले तो नहीं होता था. चैट किया तो ठीक, घर में रहे तो चट गए.

जैसे-जैसे हमारा दायरा बढ़ रहा है, दुनिया सिमट रही है. अनजाने, अनचिह्ने करीब आ रहे हैं, दूरियां घट रही हैं, पर अपने दूर होते जा रहे हैं. क्या जमाना था, जब गांव-जवार या मुहल्ले भर के लोग एक-दूसरे को जानते-पहचानते थे. उनके सुख-दुख में शामिल होते थे. दुनिया भर में घूम नहीं सकते थे, हजारों मील दूर बैठे लोगों से बात-चीत आसान नहीं थी, सो लोगों ने अपनी दुनिया बना ली थी. बेशक वह छोटी थी, पर बिल्कुल अपनी. दायरा जरूर छोटा था, पर दिल बड़ा. लोग मगन रहते थे. बाहर जाना अच्छा नहीं माना जाता था.

कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले हम जैसे ज्यादातर लोग अभी २०-२५ साल पहले तक तमाम पुरानी मान्यताओं से जैसे बंधे हुए थे. गोरखपुर में एक बुजुर्ग रिक्शेवाले से बातचीत होने लगी. मैंने कहा- इस उम्र में भी रिक्शा चलाते हैं दादा. आपके बच्चे वगैरह नहीं हैं क्या. लेकिन जवाब सुनकर हैरान रह गया. कहने लगा. बाबू- लडिक़ें त चार हैं, लेकिन एक ठो पुरान कहनाम है- थोर पढि़हें त हरे से जइहें, अ ढेर पढिहें त घरे से जइहें-(कम पढ़ेंगे तो हल नहीं चलाएंगे, ज्यादा पढेंगे तो घर से बाहर चले जाएंगे). एहि से हम नहीं पढ़ाए. सोचने लगा कि घर से बाहर न जाने के लिए सबने पूरा इंतजाम कर रखा है.

धर्म शास्त्रों में भी समुद्र पार करने से मना किया गया है, यानी विदेश गए तो धर्म भ्रष्ट. लेकिन समय ने शायद यह मान्यता ही बदल दी. धर्म से तो लोग दूर हुए, पर भ्रष्ट को आचरण के साथ जोड़ लिया. और दोनों मिलकर कब भ्रष्टाचार  बन गए, किसी को पता ही नहीं लगा.

गांव-शहर छूटा, लोग महानगर की राह पकडऩे लगे. कोई पढ़ाई करने, कोई कमाई करने. वे जब छुट्टियों या शादी-मुंडन के मौके पर आते तो बताते- दिल्ली-बंबई में कोई पड़ोसी को भी नहीं पहचानता. मुहल्ले की बात कौन करे. हम सोचते, ऐसा कैसे हो सकता है. एक ही बिल्डिंग में रहते हैं. आमने- सामने दरवाजा होता है. पर कह रहे हैं कि पड़ोसी को नहीं जानते-पहचानते. तब लगता था कि जो लोग बाहर चले जाते हैं, वो कुछ ज्यादा ही ऊंची बातें करने लगते हैं. जरूर झूठ बोलते हैं.

पर जब खुद दिल्ली आया, तो लगा कि सचमुच ऐसा होता है. हम लोग तब ये सब समझ नहीं पाते थे. पड़ोसी की तो न तब किसी को परवाह थी, न अब है. पर वाह रे जमाना! अब तो रिश्तेदार भी फोटो से पहचाने जा रहे हैं, भला हो सोशल नेटवर्किंग साइटों का, जो फोटो दिख जाती है. वेब कैम से पता लग जाता है कि रिंकू-मोनी अमेरिका में क्या कर रही हैं. मुलाकात न सही, पर बात तो हो जाती है. दूरी घटी है, इसमें शक नहीं. अमेरिका और भारत के बीच. न्यू जर्सी और गोरखपुर के बीच, दिल्ली और न्यूयार्क के बीच पर. दायरा बढ़ा है. पर सोचता हूं उनके बारे में, जो सोशल नेटवर्किंग साइट पर नहीं हैं, जो कंप्यूटर लिटरेट नहीं हैं, उन्हें कोई कैसे पहचाने. अब तो कोई पोस्ट आफिस भी नहीं जाता. डाकिए तक को नहीं पहचानता.

दो साल पहले इलाहाबाद में एक शादी में बेबी दीदी से मुलाकात हुई तो बताने लगीं, मेरा बेटा दिल्ली में ही रह रहा है. पिंटू ने अभी नैनो ली है. बहुत सुंदर गाड़ी है. मयूर विहार में रहता है. फ्लैट नंबर ... अरे यह मेरे घर के पास ही है. कॉलोनी में पहली बार नैनो आई थी, तब घर में उस पर चर्चा भी हुई थी, लेकिन क्या पता था. मैंने रीमा से कहा, याद है तुम्हें. वो पीली वाली नैनो?
तो क्या चैट हमें चट जाने पर मजबूर कर रहा है. दूर वाले करीब आ रहे हैं और अपने दूर हुए जा रहे है. इससे अच्छा तो अपना गांव, मुहल्ला ही था. लेकिन डरता हूं. कंप्यूटर और नेट तो वहां पहुंच ही गए हैं. कहीं चैट और चटने का खेल भी न शुरू हो जाए.

जावेद अख्तर साहेब की दो लाइनें याद आ रही हैं. पर एक गुजारिश है, उन्हें मेरी नजर से देखिए, जावेद साहेब की नजर से नहीं.  
क्यूं जिंदगी की राह में मजबूर हो गए, इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए.