मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

राइटर (लेखक), राइट (सही) और राइअट (दंगा)

अंग्रेजी के तीन शब्द- राइटर (लेखक), राइट (सही) और राइअट (दंगा)- आजकल देश की दशा और दिशा तय करते नजर आ रहे हैं। अखबार हों या सरकार, विपक्ष हो या विश्राम कक्ष, हर जगह चर्चा के केंद्र में शब्दों की यही तिकड़ी है। इनके बिना न सुबह की प्याली हलक से नीचे जा रही है, न शाम का प्याला। तमाम लोगों को तो सपने में भी ये तीन शब्द परेशान कर रहे हैं। 

सबसे पहले राइटर पर चर्चा। एक खास विचारधारा से प्रतिबद्ध राइटर जमात को लगता है कि प्रगतिशीलता पर उनका पुश्तैनी हक है, विकास की बात करने वाले बाकी सारे लोग ठकुरसुहाती कर रहे हैं। फिर चाहे शोभा डे हों, उदय प्रकाश हों नयनतारा सहगल, सारह जोसेफ या फिर अशोक वाजपेयी। इन तमाम लबड़हत्थे राइटर को लग रहा है कि चार दशक बाद देश में एक बार फिर से इमरजेंसी का जिन्न बोतल से बाहर निकल आया है। देश के सामाजिक ताने बाने को बिगाड़ने की कोशिश करते हुए एक कार्य योजना के तहत साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा जा रहा है और हिंदुत्ववादी ताकतें सबकुछ अपने मनमुताबिक कर रही हैं। उन्हें लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म और सौहार्द्र पर भी खतरा मंडराता नजर आ रहा है। शायद इसीलिए उन्हें लगता है कि इसे किसी भी हाल में तत्काल रोकना निहायत जरूरी है। और इसके लिए साहित्य अकादमी अवार्ड लौटाने से कारगर कोई अन्य हथियार हो ही नहीं सकता।

उदय प्रकाश, सारह जोसेफ और अशोक वाजपेयी के अवार्ड लौटाने के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अरविंद मालागट्टी, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी,  गणेश देवी, एन. शिवदास, कुम वीरभद्रप्पा, गुरबचन सिंह भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह और वारयाम सिंह संधू पर खत्म होने वाला नहीं लगता। आने वाले दिनों में अवार्ड लौटाने की और घटनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

वाम विचारधारा वाले इन राइटर को लगता है कि -अभी नहीं तो कभी नहीं- वाली निर्णायक घड़ी आ गई है। उनका सारा विरोध हाल में घटी दो प्रमुख घटनाओं को लेकर है। पहला लेखक एम.एम. कलबुर्गी और गोविंद पानसरे की हत्या और दूसरा दादरी के एक गांव में बीफ खाने को लेकर, पगलाई भीड़ के हाथों अखलाक का कत्ल। फिलवक्त, मुंबई में गजलगो गुलाम अली का कन्सर्ट रद्द होने को भी इसी के साथ जोड़ दिया गया है। इसकी मुखालफत करते हुए ये राइटर जिस हिसाब से अवार्ड लौटा रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है कि इस आंकड़े को शतक बनाने में देर नहीं लगेगी।

अवार्ड लौटाने वाली इस राइटर जमात से अब यह पूछने की जहमत कौन उठाए कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए देशव्यापी राइअट में जब लगातार तीन दिनों तक भेड़-बकरियों की तरह सिखों का कत्लेआम किया जा रहा था, बाबरी विध्वंस के बाद 1993 में जब देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई राइअट की चपेट में आकर कई दिनों तक धू-धू चल रही थी या फिर गोधरा की घटना के बाद 2002 में जब गुजरात में हुए राइअट में सांप्रदायिक सौहार्द की होलिका जलाई जा रही थी, तब इनकी आत्मा ने इन्हें क्यों नहीं झकझोरा।

यही नहीं, मलियाना-हाशिमपुरा कांड में जब सैकड़ों लोग मारे गए, तब अकादमी पुरस्कार लौटाने की बात इनके जेहन में क्यों नहीं आई। 2011 में मुंबई के ताज होटल सहित कई इमारतों पर हुए हमलों में जब देसी-विदेशी सैकड़ों बेकसूर लोगों को जान से हाथ धोड़ा पड़ा, जब मुजफ्परनगर में राइअट हुआ, तब इनके अर्न्तमन ने इन्हें क्यों नहीं धिक्कारा। यह तो महज बानगी है, इस तरह के राइअट और वाकयों से आजाद भारत का इतिहास अटा पड़ा है। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की शुरुआत के बाद नेल्ली, राउरकेला, जमशेदपुर, मुरादाबाद, कोकराझार समेत तमाम जगहों पर हुए राइअट ने देश के तथाकथित सेकुलर चरित्र पर बदनुमा दाग लगाया, पर इससे पहले कभी इस तरह अवार्ड लौटाने वाली आंधी नहीं चली।

अवार्ड लौटाने वालों के बावलेपन को देखकर पहली नजर में तो यही लगता है कि लेखकों की इस जमात का- सुविधा के समाजशास्त्र - में पक्का यकीन है। यानी वाकया बड़ा हो चाहे छोटा, किसी गांव या मुहल्ले में हो या फिर उसका दायरा कोई पूरा इलाका या सूबा हो, उनको महज इस बात से मतलब है कि वह उन्हें सूट कर रहा है या नहीं। सूट किया तो अवार्ड लौटाने वाला लोकाचार, नहीं सूट किया तो वाकये से आंखे फेर लो यार।

अब राइट (सही) पर भी थोड़ी बात कर ली जाए। प्रगतिशील कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे या अल्पसंख्यक अखलाक की हत्या हुई/कराई गई, इसमें कोई संदेह नहीं। हत्या जैसे इस कुकृत्य को कोई राइट ठहरा भी नहीं सकता। हत्या अगर रांग है, तो रांग है, उसके राइट ठहराने के पक्ष में किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं बनती।

एक संयोग यह भी है कि कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे और अखलाक अपनी हत्या के बाद जबरदस्त चर्चा में आ गए। इनकी हत्या के बाद इस कदर शोर मचा कि हर खासो-आम हैरान रह गया। आखिर ऐसा क्या खास था कि इनकी ही हत्याएं मीडिया की सुर्खियां बनीं। अखबारों के पन्ने रंगे गए, टीवी पर तमाम बड़ी खबरें बेमौत मरने को मजबूर हुईं। कलबुर्गी को जब अकादमी पुरस्कार मिला था, तब उनकी चर्चा साहित्य में रुचि रखने बुद्धिजीवी वर्ग तक ही सिमट कर रह गई थी, आम आदमी को तो याद भी नहीं होगा कि किस रचना के लिए और किस साल उन्हें अवार्ड मिला था। अलबत्ता, पैन इंडियन प्रसिद्धि उन्हें मरणोपरांत जरूर मिली।

दाभोलकर, पानसारे और अखलाक को भी देश का आम आदमी तभी जान पाया, जब चंद आतताइयों ने उनका सिर कलम कर दिया। आतताइयों की वैसी भी कोई मजहब या जाति नहीं होती। ठीक आतंकवादियों की तरह। अब यह दीगर बात है कि अखलाख के कत्ल के लिए हिंदुओं को कसूरवार ठहराया गया, जबकि दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्या का आरोप दक्षिणपंथियों के सिर मढ़ा गया। जानकार बताते हैं कि आजाद भारत के इतिहास लेखन में भी इसी तरह की बाजीगरी की गई है।

किसी ने ठीक कहा है कि कब किसकी किस्मत चमकेगी, कोई नहीं जानता। किसी की जीते जी चमक जाती है और किसी की मौत के बाद। कुछ मर कर अमर हो जाते हैं, तो कुछ मर कर घरवालों के लिए अकूत संपदा का इंतजाम कर जाते हैं। अब अखलाक को ही ले लीजिए। जीते जी उसने सपने में भी सोचा नहीं होगा कि उसकी मैय्यत उठने के बाद सूबे की सरकार की मेहरबानी से परिवार वालों की लाटरी खुल जाएगी। नोटों की बरसात होने लगेगी।


आप अगर राइटर हैं, खासतौर पर वामपंथी राइटर तो आपकी कलम राइट-रांग का हिसाब रखेगी ही। आपको हर उस वाकये में राइअट की बू आएगी, जिसको आपके हिसाब से राइटिस्ट या देश की बहुसंख्यक आबादी ने अंजाम दिया है। आपको प्रधानमंत्री या साहित्य अकादमी के चेयरपर्सन की चुप्पी पर भी हैरानी होगी। और हो भी क्यों न, आखिर बुद्धि पर एकमुश्त अधिकार आपका ही तो है।