क्योंकि सास भी कभी बहू थी-फेम
स्मृति इरानी एक बार फिर चर्चा में हैं। कई दिनों से फिजां में यह बात तैर
रही है कि इस बार मोदी कैबिनेट की आस्तीन चौड़ी हुई तो स्मृति का कद छोटा
हो गया। मीडिया पंडित से लेकर सियासत दां तक उधेड़-बुन में लगे हुए हैं कि
शिक्षा (मानव संसाधन विकास) मंत्रालय जैसा अहम महकमा संभालने वाली स्मृति
अब हल्के-फुल्के कपड़ा मंत्रालय में क्या करेंगी। उनकी उधेड़बुन भी ऐसी,
जिसमें सिर्फ उधेड़ना है, बुनावट की गुंजाइश नहीं।
माता-पिता ने स्मति नाम चाहे जिस भी वजह से रखा हो, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वह जहां जाती हैं, अपनी “स्मृति” छोड़ती हैं। “स्मृति” अच्छी
हो या बुरी, अपनी बला से। फिर चाहे परिवार की सारी बंदिशें तोड़कर
मैकडॉनल्ड्स में वेट्रेस की नौकरी करना हो, सौंदर्य प्रसाधनों के प्रचार के
लिए मॉडलिंग की बात हो, या फिर फेमिना मिस इंडिया प्रतियोगिता में बतौर
प्रतिभागी हिस्सेदारी। हर जगह उन्होंने अपनी “स्मृति”छोड़ी।
अभिनय
का भूत सवार हुआ, तो राजनीतिक राजधानी छोड़कर स्मृति ने आर्थिक राजधानी की
राह पकड़ ली। दरअसल, बॉलीवुड़ वहीं जो है। सन 2000 में-हम हैं कल आज कल और कल- के जरिए स्मृति ने छोटे परदे के दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन दरवाजा खुला एकता कपूर के सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी से।
फिर तो लगातार आठ साल यानी 2008 तक दरवाजा सिर्फ उनके ही इशारे पर
खुला-बंद हुआ। किसी के पांव उस दरवाजे के पास फटक तक नहीं पाए। तुलसी के
किरदार में स्मृति दर्शकों, खासतौर पर महिलाओं के दिलों पर राज करती रहीं।
छोटे
परदे से छलांग लगाकर राजनीतिक आसमान पर चमकने तक की उनकी कहानी भी कम रोमांचक नहीं है। हालांकि तकरीबन पांच साल तुलसी और स्मृति का सफर साथ-साथ चला।
2003 में भाजपा की मेंबरी ली और दिल्ली के चांदनी चौक लोकसभा क्षेत्र में
कांग्रेस के दिग्गज कपिल सिब्बल से दो-दो हाथ करने के लिए चुनावी अखाड़े
में कूद गईं। पहले सीरियल की तरह पहली सियासी जंग में भी नाकामयाबी
मिली। पर 2010 में भाजपा महिला मोर्चा की कमान संभाली तो फिर पीछे मुड़कर
नहीं देखा। एक साल के भीतर ही बरास्ता गुजरात, राज्यसभा पहुंच गईं। 2014 में
लोकसभा चुनाव हुए तो अमेठी में उनके सामने थे कांग्रेस के कुंवर और आम
आदमी पार्टी के कुमार, जिन्हें विश्वास था कि जीत उन्हीं की होगी। हारीं तो स्मृति इस बार भी पर पार्टी में उनका स्वागत हुआ विजयी नायिका की तरह। कुंवर को कड़ी चुनौती देने के एवज में उन्हें बड़ा इनाम मिला। चुनाव परिणाम आने पर, जब मोदी मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो
उन्हें अहम माने जाने वाले मानव संसाधन विकास मंत्री के ओहदे से नवाजा गया।
उसके बाद अपने बेलौस बयानों की वजह से दर्जनों बार वह जबरदस्त चर्चा में
रहीं। कभी तारीफ मिली तो कभी जमकर आलोचना भी हुई। पिछले हफ्ते मोदी मंत्रिमंडल का पुनर्गठन हुआ तो उन्हें कपड़ा
मंत्रालय थमा दिया गया।
न
केवल राजनीतिक विरोधी बल्कि मीडिया पंडित और सियासद दां भी जैसे इसी मौके का इंतजार
कर रहे थे। इसी बहाने उन्हें तरह तरह की कयासबाजी का मौका मिल गया। कहा तो
यहां तक गया कि स्मृति के हाथ से किताब लेकर सिलाई मशीन थमा दी गई। लेकिन
जब स्मृति से प्रतिक्रिया पूछी गई तो उन्होंने बीते जमाने के सुपरस्टार
स्व. राजेश खन्ना को याद करते हुए केवल यही कहा....कुछ तो लोग कहेंगे,
लोगों का काम है कहना।
मोदी
से उनकी निकटता भी अक्सर चर्चा का विषय बनती है। बेशक उनकी यह काबिलियत
पार्टी में मौजूद उनके आलोचकों को फूटी आंख न सुहाती हो, लेकिन वे भी मानते
हैं कि स्मृति बेखौफ महिला हैं, और अपनी बात कहने में हिचकिचाती
नहीं, नतीजा चाहे जो हो। विरोधी, आलोचक, सियासत दां और मीडिया पंडित चाहे
जिस उधेड़-बुन में हों, लेकिन एक बात तो साफ है कि स्मृति बुनने में ज्यादा
यकीन रखती हैं। उत्तर प्रदेश में बड़ा टेक्सटाइल बाजार है,
गोरखपुर-खलीलाबाद-मऊ से लेकर मऊरानीपुर-झांसी तक बड़े पैमाने पर हैंडलूम का
कारोबार होता है, बनारसी साड़ियों की अलग पहचान है तो भदोही के कालीन से भी
देश-विदेश के लोग वाकिफ हैं। बुनाई उद्योग से जुड़े वोटरों (ज्यादातर
मुसलिम) के बीच अपनी पैठ बनाकर वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का
ताना-बाना बुनने में जुट सकती हैं। पार्टी को वहां वैसे भी किसी चेहरे की
दरकार है। ग्लैमर का तड़का है, चेहरा जाना पहचाना है, हाजिर जवाब और अच्छी वक्ता तो खैर वो
हैं ही। केंद्रीय राजनीति में रहकर सियासत का दांव-पेंच भी उन्होंने अच्छी
तरह सीख लिया है। संभव है प्रधानमंत्री ने उन्हें कपड़ा मंत्रालय बहुत सोच
समझकर दिया हो।
कहते
हैं, इंसान की तीन बुनियादी जरूरतें होती हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। इसमें
दो राय नहीं कि शिक्षा की बदौलत इन तीनों को हासिल किया जा सकता है। लेकिन
अपने प्रधानमंत्री जी का तो काम करने का तरीका ही निराला है। विरोधी भले
उन्हें फेंकू पुकारते हों, लेकिन पलटवार कर जब वह जवाब फेंकते हैं, तो
सामने वाले को पोछते नहीं बनता। संभव है कि छोटी-छोटी बातों पर गौर करने
वाले मोदी को लगा हो कि स्मृति कपड़ा का इंतजाम करें, रोटी और मकान की
जिम्मेदारी कोई और संभाल लेगा। फिर लोग कहेंगे-क्योंकि स्मृति भी कभी मानव संसाधन विकास मंत्री थी।