सोमवार, 8 सितंबर 2014

भारत भाग्य विधाता

शिक्षक दिवस (5 सितंबर) के अवसर पर देशभर के स्कूली बच्चों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीधी बातचीत को लेकर देश में खूब चर्चा हो रही है। बातचीत के लिए प्रधानमंत्री को जम कर कोसा रहा है। डंका पीटा जा रहा है कि बच्चों से बातचीत कर प्रधानमंत्री ने जघन्यतम अपराध किया है। अखबारों में लेख लिखे जा रहे हैं, परिचर्चा के लिए टीवी चैनलों में होड़ लगी है, सोशल मीडिया के पन्ने रंगे जा रहे हैं। मोदी कुपित तबका नुक्कड़ -चौराहों पर इसकी चर्चा कर गौरवान्वित हो रहा है। पर शायद, सब पर भारी है सोशल मीडिया।
इसे सोशल मीडिया का ही कमाल कहेंगे कि शिक्षक दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री-स्कूली बच्चों की सीधी बातचीत ने जाने-अनजाने बंगलुरु में रहने वाले द हिन्दू के नायाब फोटोग्राफर भाग्य प्रकाश के भाग्य का पिटारा खोल दिया। भाग्य प्रकाश ने इससे पहले न जाने कितनी तस्वीरों को अपने कैमरे में कैद किया होगा, पर शिक्षक दिवस के मौके पर उनके कैमरे में कैद हुई एक नायाब तस्वीर ने फौरी तौर पर उन्हें देश का सबसे चर्चित छायाकार बना दिया है। अब यह बात तो भाग्य प्रकाश ही बता बताएंगे कि छींका बिल्ली के भाग्य से टूटा या फिर उनके।
दरअसल, भाग्य प्रकाश ने जिस तस्वीर को अपने कैमरे में कैद किया है, उसमें एक क्लास में लगी टीवी पर मोदी के संबोधन का सजीव प्रसारण हो रहा है। उसी बीच एक छोटा बच्चा अपनी स्वाभाविक जरूरत पूरी करने के लिए क्लास से बाहर जाने की अनुमति मांग रहा है, जबकि उपस्थित शिक्षिका उसे ऐसा करने से मना कर रही है। बस एक स्वाभाविक घटना को हमारा सोशल मीडिया ले उड़ा, गोया प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई विशेष अधिसूचना जारी हुई थी कि मोदी के भाषण के दौरान सभी बच्चे सावधान की मुद्रा में बैठे रहेंगे, उनकी पैंट गीली हो तो अपनी बला से।  


इसमें दो राय नहीं हो सकती कि स्वाभाविक जरूरतें सबको परेशान करती हैं। वो मोदी मुदित लोग भी हो सकते हैं और मोदी कुपित लोग भी। यह बात महिलाओं पर भी लागू होती है और पुरुषों पर भी। युवाओं पर भी लागू होती है और बुजुर्गों पर भी। स्कूली बच्चों पर भी और शिक्षक-शिक्षिकाओं पर भी।
स्कूली बच्चा एकबारगी अपनी स्वाभाविक जरूरत से समझौता नहीं कर पाया, यह बात तो समझ में आती है, पर अगर कोई शिक्षक या शिक्षिका सबकुछ समझ कर भी नासमझी करे तो इसके लिए दोषी कौन है। क्या उसके संस्कार, क्या उसकी शिक्षा या फिर वह माहौल, जिसमें वह पली-बढ़ी है। या फिर देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था दोषी है, मौजूदा शिक्षा मंत्री दोषी हैं या मौजूदा प्रधानमंत्री। या फिर वे जिन्होंने हर चीज में कमी ढूंढने का शगल पाल रखा है।
कहां तो इस बात की खुले दिल से प्रशंसा होनी चाहिए थी, कि चलो किसी प्रधानमंत्री ने बच्चों से सीधी बात करने की पहल तो की। बाल मन में झांकने की कोशिश तो की। उनकी हौसला आफजाई तो की। याद नहीं आता कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने (चाचा नेहरू का जमाना मुझे याद नहीं) कभी इस तरह की कोशिश की थी। अलबत्ता पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम बच्चों के हर सवाल का जवाब देने को तैयार रहते थे। और कहां अब यह बहस छिड़ चुकी है कि क्या इस करवा चौथ पर चांद निकलने से पहले प्रधानमंत्री मोदी देश की महिलाओं को संबोधित करेंगे।

जय भाग्य, जय भारत...............  

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

तू मसीहा जमाने के मारों का है......

सूचना का अधिकार क्रांति के पुरोधा अरविंद केजरीवाल ने अपने वर्षों के संघर्ष और सूबा दिल्ली के हुक्मरानों की सूची में अपना नाम लिखवाकर, आम को दरअसल खास बना दिया। वरना, आम की हैसियत तो गुठली जैसी हो कर रह गई थी।
आम को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए जब मुहिम की शुरुआत हुई तो हिमायतियों की पूरी फौज खड़ी हो गई। आम और खास का फर्क मिट गया। फिर चाहे अन्ना हजारे हों या किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल हों या मनीष सिसोदिया, जनरल वीके सिंह हों या फिर मेघा पाटकर, सब एक झंडे के नीचे खड़े हो गए। दिल्ली के जंतर मंतर से फूटी धारा ऐतिहासिक रामलीला मैदान पहुंचते-पहुंचते समंदर में तब्दील हो गई। कहा जाने लगा कि गंगा, यमुना में डुबकी लगाना बेकार, बैकुंठ तो समंदर स्नान से ही मिलेगा।
भीड़ बढ़ी तो एक रास्ता कम पड़ने लगा। फिर जिसको जो राह आसान लगी, वो उसी पर चलने लगा। अन्ना और किरण बेदी को पुराना रास्ता ही ठीक लगा। हालांकि बीच-बीच में अन्ना के तृणमूल कांग्रेस में और किरण बेदी के भाजपा में जाने की अफवाहें उड़ती रहीं। वीके सिंह भी कुछ दिन अन्ना का साथ निभाते रहे, पर आखिरकार उन्होंने हाथ में कमल उठा लिया। अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने नई राजनीतिक पार्टी बना ली। दिल्ली के विधानसभा चुनाव की वजह से जल्द ही उनके इम्तिहान का मौका आ गया। और वे कामयाब भी हुए।
गुलामी की मानसिकता हमें विरासत में मिली है। सो, भारत में रहने के नाते ज्यादातर लोगों ने अंग्रेजी की यह कहावत सुनी  होगी-नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। यह आम आदमी पार्टी यानी आप पर पूरी तरह फिट बैठती है। आप ने सूबा दिल्ली का ताज शीला दीक्षित की उसी कांग्रेस की मदद से हासिल कर लिया, जिसके खिलाफ उसने जंग लड़ी थी। फिर तो सारी बातें बेमानी हो गईं क्योंकि वे कामयाब जो हो गए थे। सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी भाजपा मन मसोस कर रह गई। बेचारे डॉ. हर्षवर्धन।
समूची मीडिया बिरादरी आप की कामयाबी के करिश्मे से हैरान थी। तारीफ के पुल बांधने के लिए अखबारों और खबरिया चैनलों में जगह कम पड़ने लगी। लेकिन बैसाखी पर टिकी सरकार आखिर कितने दिन चलती। सात हफ्तों तक तमाम वायदे-घोषणाएं, लटके- झटके, धरना-प्रदर्शन चलते रहे। आप के चुनिंदा कामरेडों ने रेल भवन के सामने हाड़ कंपाने वाली ठंड में सड़क पर रात बिताई तो एक बारगी लगा कि गणतंत्र दिवस समारोह भी संपन्न हो पाएगा या नहीं। बात-बात में जनता की अदालत में जाने का दम भरने वाले आम आदमी के नए मसीहा ने 49वें दिन सबको अधर में छोड़कर पतली गली का रास्ता पकड़ लिया। लोगों को ऱणछोड़दास याद आने लगे। क्योंकि कांग्रेस ने तो कम से कम अपनी बैसाखी नहीं छीनी थी।
उनके आंधी की तरह आने और तूफान की तरह जाने का अंदेशा किसी को नहीं था। शायद खुद आप को भी। वजूद बचा रहे, तिलिस्म टूटने न पाए, इसके लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाई गई। अय्यारी का सहारा लिया गया। फिर बिना पूरी तैयारी के ही आम चुनावों कूदने का फैसला हो गया। चर्चा में बने रहने के लिए, राहुल गांधी के खिलाफ कुमार विश्वास को उतारा गया तो नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए खुद मसीहा ही एक बार फिर से रणक्षेत्र में कूद गया। महात्मा गांधी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक के वंशजों को साथ जोड़ा गया। अब आने वाली 16 तारीख को आने वाले नतीजे साफ कर देंगे कि आम आदमी खास बना या फिर उसकी औकात फिर गुठली जैसी हो गई।   
सच कहें तो बात चाहे आम की हो या आम आदमी की, दोनों खास बने हुए थे, लेकिन फिलहाल दोनों बहुत खऱाब दौर से गुजर रहे हैं। यूरोपीय यूनियन ने आमों का राजा कहे जाने वाले अल्फांजो के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब आम आदमी की जमात में शामिल अल्फांजो आम की खेती करने वाले किसान अपना सिर पकड़ कर रोएं तो अपनी बला से।

यह बात दीगर है कि यूरोपीय यूनियन को यह बात समझ में आ गई कि विदेशी तो अल्फांजो का मजा लूटें और जहां वह पैदा होता है, वहां के लोग उसके लिए लार टपकाएं, यह सही नहीं है। हिंदुस्तान के आम आदमी के लिए कोई यूनियन ऐसा कब सोचेगी कहना मुश्किल है। फिलहाल जो लहर है, उसे देखते हुए अंदाजा लगाना मुश्किल है कि आम आदमी का नया मसीहा बहकर किस किनारे लगेगा। कश्मीर वाले अपने फारूक साहेब तो पहले ही कह चुके हैं कि मोदी को वोट देने वाले आम आदमी को समंदर में डूब जाना चाहिए।