मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अब नहीं डरती मछलियां


दफ्तर से घर पहुंचा ही था कि आठ साल का मेरा भतीजा दौड़ता हुआ आया. बोला, एक सवाल पूछना है ताऊजी. उसे जैसे बस मेरे घर आने का इंतजार था. मैंने कहा, हाथ-मुंह धो लूं, फिर पूछना. लेकिन इतना इंतजार... बच्चा जो ठहरा. एक ही सांस में बोल गया, हाथ लगाने से मछली क्यों नहीं डरती? पानी से बाहर निकालने पर क्यों नहीं मरती? तुरंत जवाब नहीं सूझा तो मैंने कहा, थोड़ी देर में बताऊंगा.
 
सोचने लगा, अचानक इसे मछली की याद कहां से आ गई? कहीं किसी मुहावरे की तो बात नहीं कर रहा? हिंदी की कोई किताब तो इसके हाथ नहीं लग गई. आखिर ऐसा सवाल इसके दिमाग में आया कहां से? मन बचपन की तरफ डग भरने लगा. महाभारत वाले अर्जुन की नजर मछली की आंख पर थी, पर मेरी आंखों के सामने साबुत मछली थी.
 
उस मुहावरे का ख्याल आया, बड़ी मछली छोटी मछलियों को खा जाती है. हो सकता है किसी बड़ी मछली ने छोटी मछलियों को खा लिया हो, अंत में बड़ी वाली ही बची होगी, सो हाथ लगाने से भला क्यों डरेगी. पानी से बाहर निकालेंगे तो तुरंत क्यों मरेगी. भतीजे की जगह किसी बड़े ने यही सवाल किया होता तो और भी मुश्किल हो जाती. फिर तो यही होता, न जाने किस मछली की बात कर रहे हैं.
 
ड्राइंगरूम के एक्वेरियम में तैरने वाली मछलियों की, सिन्हा साहेब के लॉन में बने पॉंड में इठलाती मछलियों की, या ताल-तलैया, नदी और समुंदर वाली मछलियों की. खैर जब इस मुहावरे में कुछ नहीं मिला तो मछलियों से जुड़े दूसरे लोकप्रिय मुहावरे की तरफ ध्यान गया. एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. हो सकता है गंदी हो गई मछलियों ने डरना छोड़ दिया हो, मरना भूल गई हों.
 
कहीं गंदी मछलियों के बारे में तो नहीं पूछ रहे हैं. ऐसा है तो समाज पर नजर डालनी होगी. नेता-अभिनेता दोनों को समाज का प्रतिनिधि माना जाता था. दोनों का बहुत ग्लैमर हुआ करता था. लोग एक झलक पाने को बेताब रहते थे. बुरा हो छोटे पर्दे वालों का, हर प्रोग्राम में खासतौर पर बुलाकर इन्हें आम बना दिया. कभी इज्जत को लेकर लोग डरते थे, बेशर्म न हुए तो मरते थे, पर समय ने सारा समाजशास्त्र बदल दिया. पकड़े गए, जेल गए, छापा पड़ा, घर से नगदी बरामद हुई- समझो इज्जत बढ़ गई. समाज में रुतबा बढ़ गया. थोड़ा और नाम हुआ तो माननीय बनना पक्का.
 
बेशर्मी की बात क्या करें. उसकी कोई हद नहीं है. कभी खबर आई कि बिपाशा ने बदन उघाड़ू शाट्स दिए हैं, तो कभी पता लगा कि मंदिरा ने किसी विज्ञापन के लिए टॉपलेस पोज दी है. बिकनी देखते-देखते 40-50 साल हो गए. अब तो मल्लिका भी पीछे छूट गई. आंख से काजल चुराने की तरह उनके सिर से मल्लिका-ए-बेशर्मी का ताज न जाने कब और किसने उड़ा दिया. शोले का वह डायलाग वाकई पुराना हो गया, जो डर गया, समझो मर गया. दलेर साहेब को भी छुई-मुई गाए बहुत दिन हो गए. अब मछलियां न तो डरती हैं, न मरती हैं.

कहते हैं सिनेमा समाज का दर्पण होता है. यानी सिनेमा में वही होता है, जो कुछ समाज में चल रहा है. नए जमाने का सिनेमा बताता है कि इश्क कमीना हो गया. पप्पू साला काम से गया. लोग गुनगुनाने हैं- पप्पू कांट डांस साला, पप्पू नाच... अच्छी तरह याद है, जब हिंदी फिल्मी गीतों को उनके बोल के लिए ही जाना जाता था. पचास और साठ के दशक के तमाम गाने अभी तक जुबान से उतर नहीं पाए तो उसकी वजह उनके बोल भी हैं. कवि प्रदीप, इंदीवर, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदांयूनी को कैसे भूल सकते हैं. अमर गीतकार, अमर गीत.

हिंदी फिल्मी गीतों का अब भी बहुत जोर है. इसकी वजह भी उनके बोल ही हैं. मुन्नी बदनाम हुई पर पूरी दबंगई के साथ. शीला की जवानी भी रोके नहीं रुक रही. वो तो अच्छा हुआ कि तीस मार खां ने पहले ही हाथ आजमा लिया, वरना हमारे जैसे लोग तो यही सोच रहे थे कि मुन्नी बदनाम हुई तो क्या हुआ, अब शीला जवान हो गई है. कल कोई और बीना या गीता अपना जलवा बिखेरने आएगी. अब शीला और मुन्नी की वजह से किसी लडक़ी ने जान देने की कोशिश की, किसी ने स्कूल से नाम कटवा लिया या किसी ने मुकदमा कर दिया तो उसमें गाने का क्या गुनाह.

बहरहाल, जब कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने भतीजे को बुलाकर कहा, भई सवाल बहुत मुश्किल है, मुझे इसका जवाब नहीं मिला, तुम खुद ही बता दो. बोला बहुत सिंपल है. मेरे दोस्तों ने एक नई पोयम लिखी है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है. मुन्नी हुई पुरानी है, शीला की जवानी है. मछली का डरना और मरना हम लोगों को अच्छा नहीं लग रहा था. मैंने कहा चलो, अच्छा हुआ मुन्नी और शीला ने मछलियों को डरने-मरने से बचा लिया, वरना अभी तक तो पीपल फॉर एनिमल वाली बहूजी का ध्यान भी इनकी ओर नहीं गया था. 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

यूपीए-2 को लूट लेगा पी-2!

हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने...'  क्या लूट थी वो लूट, बजाए आंसू बहाने के, अफसोस जताने के, लुटने वाले खुश कि किसी ने लूटा तो सही. इस गाने ने शिल्पा शेट्टी को शायद बहुत हिम्मत दी, तभी तो चली आईं थीं खुले आम, यूपी, बिहार लूटने. सिपहसालारों को लगा-जब लुटने, लुटाने और लूटने का खेल इतना निराला है तो क्यों ने चलकर सरकारजी को सुझाया जाए.शिल्पा लूट सकती हैं, तो सरकार क्यों नहीं. चले गए सरकार बहादुर के पास-हुजूर, कितना अच्छा हो, सरकार खुद लूटे. ऐसा संभव नहीं तो लूट का लाइसेंस जारी करे. आइडिया अप्रूव. फटाफट आदेश तामिल हो गया. लाइसेंस लीजिए, खुलकर लूटिए. इतना बड़ा देश. इतनी ज्यादा आबादी. इतना बड़ा बाजार. इतने ज्यादा खरीदार. यानी इतने ज्यादा लुटने वाले. लूटने वाले तो जोड़-घटाना करते रहते हैं, उन्हें अपने संभावित बाजार-खरीदार का पता होता है. आदेश निकलते ही लाइसेंस लेने की होड़ मच गई. बच्चा बच्चा राम का, जन्म भूमि के काम का की तरह हर एक को पता लग गया कि पैसे दे दो, लाइसेंस ले लो. जगह जगह साइन बोर्ड लग गए-यहां लाइसेंस बनता है. यह बात दीगर है कि आरटीओ आफिस (रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस) के सामने शायद ही कहीं लिखा हो, यहां ड्राइविंग लाइसेंस बनता है. बंदूक का लाइसेंस कहां बनता है, यह भी कम लोगों को मालूम होगा. बेशक चंबल वाले जानते हैं. लेकिन बंदूक किस काम की. लूट में उसका क्या काम? लूट के लिए कोई लाइसेंसी बंदूक का इस्तेमाल थोड़े ही करता है. और यहां तो लूट का ही लाइसेंस मिल रहा है.

ट्रकों की तरह जमाखोर और कालाबाजारिए पीछे लिखवा रहे हैं - बुरी नजर वालों तेरा मुंह काला. बेचारों को कोई अच्छी नजर से नहीं देखता. भाई लोगों ने खूब लूट मचाई. लूट का लाइसेंस सबसे पहले इन्हें मिला तो बाजी कौन मारता. पहले चीटियों की तरह चीनी की मिठास चाट गए. फिर धीरे-धीरे गेहूं, चावल, तेल सबको इनकी नजर लग गई. कोई झाड़-फूंक काम नहीं आई. ओझा-सोखा सब बेकार. बाजार के जानकारों को पता था कि देश की बहुत बड़ी आबादी गरीब है. वह रोटी-नमक-प्याज से काम चला लेती है. रोटी यानी गेहूं पर तो पहले ही नजर पड़ गई थी. बचे थे केवल नमक- प्याज.  नमक पर निशाना साधने में खतरा था. कोई गांधी कहीं नमक बनाने फिर से डांडी चला गया, तब क्या होगा? सो सबसे मुफीद लगा प्याज. देखते ही देखते आसमान छूने लगी प्याज और आंसू बहाने लगी जनता. पर इन्हें क्या? लाइसेंस लिया है लूटने का.

लाइसेंस मिल रहा था तो तेल कंपनियां भला क्यों पीछे रहतीं. सरकार को भी लगा-लूट का लाइसेंस देकर बचा जा सकता है. जनता कोसेगी तो नहीं. फटाफट लाइसेंस दे दिया. फिर क्या था. लाइसेंस आया हाथ, अब डर काहे का. महंगाई की आग में झुलस ही रही जनता पर पेट्रोल छिडक़ दिया. 48 से 58 तक पहुंचने में महज सात महीने लगे. पिछले साल जून में साढ़े तीन रुपये की बढ़ोत्तरी से शुरु हुआ सफर, दिसंबर में दो रुपये 96 पैसे की बढ़ोत्तरी के साथ खत्म हुआ. हां, भई 2010. नया साल- नया सफर. 2011 में जैसे मकर संक्रांति का इंतजार रहा हो. वैसे भी देश के अधिकतर हिस्सों में मकर संक्रांति से एक महीने पहले का समय अच्छा नहीं माना जाता. मकर संक्रांति में सूर्य देव की पूजा होती है, कंपनियों ने आग लगाने के लिए शायद इसीलिए अंधेरा होने का इंतजार किया. ज्यादातर लोगों को तो सुबह अखबार पढक़र मालूम हुआ कि आग लग गई है. 
हवाई जहाजों में भीड़ देखकर तेल कंपनियों को अंदाजा हो गया था कि अमीरों की तादाद लगातार बढ़ रही है. हवाई जहाज तो हवा में आसमान में उड़ते ही हैं, कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की आड़ लेकर उन्होंने एटीएफ की कीमतों को भी आसमान की सैर करा दी. अरे पटेल साहेब, जरा पता कराइए. कोई साजिश तो नहीं हो रही आपकी पार्टी के खिलाफ, आपने विमानन मंत्रालय संभाला तो एटीएफ (विमान का ईंधन) महंगा हो गया. और चीनी से लेकर प्याज तक कोई भी चीज महंगी हुई तो आपकी पार्टी के मुखिया पवार साहेबका नाम आ जाता है. वैसे भी युवराज का बयान तो आपको याद ही होगा.
हेरोडेटस को इतिहास का जनक (फादर ऑफ हिस्ट्री) कहा जाता है. उन्होंने इतिहास के बारे में एक टिप्पणी की थी. इतिहास का एकमात्र सबक यही है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते. (द ओनली लेसन ऑफ हिस्ट्री इज दैट, वी डू नाट टेक एनी लेसन फ्राम हिस्ट्री). लगता है सरकार ने हेरोडेटस की यह टिप्पणी गांठ बांध ली है. उसे पिछले दशक के आखिरी दिनों में दिल्ली की सुषमा स्वराज सरकार का पतन याद नहीं है. सरकारों की बलि लेने का प्याज का पुराना इतिहास रहा है. अब तो प्याज और पेट्रोल मिलकर पी-2 बन गए हैं. यूपीए-2 नहीं चेता तो पी-2 उसे भी लूट लेगा.

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चैट और चट

1.सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बेटी ने कहा, अरे पापा, कल मेरी फ्रेंड अनुष्का ने शादी कर ली. दोनों एक ही हॉस्पिटल में हैं. एकदम चट मंगनी, पट ब्याह. मुझे तो फोन पर अभी उसकी मम्मी ने बताया.

2. शाम को घर लौटा तो रीमा (पत्नी) बोली, तुम शू वगैरह निकालो, मैं जरा मिसेज वर्मा को देखकर आती हूं. दोपहर में चोट लग गई थी. बस चट गए, पट आए.

3.रात में डाइनिंग टेबल पर बैठा तो बेटा बोला, आज मेरे दो दोस्त आए थे, हम लोगों सारे बिस्कुट चट कर गए. मम्मी ने बहुत डांटा, आप कल और ला दीजिएगा पापा.

4. अरे यार, हर हफ्ते ये संडे क्यों आ जाता है. दिन भर घर में बैठे-बैठे चट जाता हूं.मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तीनों एक साथ बोले. दिन भर कंप्यूटर से चिपके  रहते हो, चैट करते हो तब कुछ नहीं होता. एक दिन घर में हो तो चट गए. वाह ये क्या बात हुई. वाकई बहुत निराला है चट.

मैं सोचने लगा. बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. घर से बाहर दिन भर, जितने लोगों से मिल लो. सोशल नेटवर्किंग कर लो, चैट कर लो. लेकिन पूरे दिन घर में... बहुत मुश्किल है. बोर हो जाता हूं. चट जाता हूं.

ऑफिस में दोस्तों से यह सब शेयर किया कहने लगे. बिल्कुल यार.पर हम लोगों ने कभी गौर ही नहीं किया. बात बिल्कुल ठीक है. ऐसा क्यों हो रहा है. पहले तो नहीं होता था. चैट किया तो ठीक, घर में रहे तो चट गए.

जैसे-जैसे हमारा दायरा बढ़ रहा है, दुनिया सिमट रही है. अनजाने, अनचिह्ने करीब आ रहे हैं, दूरियां घट रही हैं, पर अपने दूर होते जा रहे हैं. क्या जमाना था, जब गांव-जवार या मुहल्ले भर के लोग एक-दूसरे को जानते-पहचानते थे. उनके सुख-दुख में शामिल होते थे. दुनिया भर में घूम नहीं सकते थे, हजारों मील दूर बैठे लोगों से बात-चीत आसान नहीं थी, सो लोगों ने अपनी दुनिया बना ली थी. बेशक वह छोटी थी, पर बिल्कुल अपनी. दायरा जरूर छोटा था, पर दिल बड़ा. लोग मगन रहते थे. बाहर जाना अच्छा नहीं माना जाता था.

कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले हम जैसे ज्यादातर लोग अभी २०-२५ साल पहले तक तमाम पुरानी मान्यताओं से जैसे बंधे हुए थे. गोरखपुर में एक बुजुर्ग रिक्शेवाले से बातचीत होने लगी. मैंने कहा- इस उम्र में भी रिक्शा चलाते हैं दादा. आपके बच्चे वगैरह नहीं हैं क्या. लेकिन जवाब सुनकर हैरान रह गया. कहने लगा. बाबू- लडिक़ें त चार हैं, लेकिन एक ठो पुरान कहनाम है- थोर पढि़हें त हरे से जइहें, अ ढेर पढिहें त घरे से जइहें-(कम पढ़ेंगे तो हल नहीं चलाएंगे, ज्यादा पढेंगे तो घर से बाहर चले जाएंगे). एहि से हम नहीं पढ़ाए. सोचने लगा कि घर से बाहर न जाने के लिए सबने पूरा इंतजाम कर रखा है.

धर्म शास्त्रों में भी समुद्र पार करने से मना किया गया है, यानी विदेश गए तो धर्म भ्रष्ट. लेकिन समय ने शायद यह मान्यता ही बदल दी. धर्म से तो लोग दूर हुए, पर भ्रष्ट को आचरण के साथ जोड़ लिया. और दोनों मिलकर कब भ्रष्टाचार  बन गए, किसी को पता ही नहीं लगा.

गांव-शहर छूटा, लोग महानगर की राह पकडऩे लगे. कोई पढ़ाई करने, कोई कमाई करने. वे जब छुट्टियों या शादी-मुंडन के मौके पर आते तो बताते- दिल्ली-बंबई में कोई पड़ोसी को भी नहीं पहचानता. मुहल्ले की बात कौन करे. हम सोचते, ऐसा कैसे हो सकता है. एक ही बिल्डिंग में रहते हैं. आमने- सामने दरवाजा होता है. पर कह रहे हैं कि पड़ोसी को नहीं जानते-पहचानते. तब लगता था कि जो लोग बाहर चले जाते हैं, वो कुछ ज्यादा ही ऊंची बातें करने लगते हैं. जरूर झूठ बोलते हैं.

पर जब खुद दिल्ली आया, तो लगा कि सचमुच ऐसा होता है. हम लोग तब ये सब समझ नहीं पाते थे. पड़ोसी की तो न तब किसी को परवाह थी, न अब है. पर वाह रे जमाना! अब तो रिश्तेदार भी फोटो से पहचाने जा रहे हैं, भला हो सोशल नेटवर्किंग साइटों का, जो फोटो दिख जाती है. वेब कैम से पता लग जाता है कि रिंकू-मोनी अमेरिका में क्या कर रही हैं. मुलाकात न सही, पर बात तो हो जाती है. दूरी घटी है, इसमें शक नहीं. अमेरिका और भारत के बीच. न्यू जर्सी और गोरखपुर के बीच, दिल्ली और न्यूयार्क के बीच पर. दायरा बढ़ा है. पर सोचता हूं उनके बारे में, जो सोशल नेटवर्किंग साइट पर नहीं हैं, जो कंप्यूटर लिटरेट नहीं हैं, उन्हें कोई कैसे पहचाने. अब तो कोई पोस्ट आफिस भी नहीं जाता. डाकिए तक को नहीं पहचानता.

दो साल पहले इलाहाबाद में एक शादी में बेबी दीदी से मुलाकात हुई तो बताने लगीं, मेरा बेटा दिल्ली में ही रह रहा है. पिंटू ने अभी नैनो ली है. बहुत सुंदर गाड़ी है. मयूर विहार में रहता है. फ्लैट नंबर ... अरे यह मेरे घर के पास ही है. कॉलोनी में पहली बार नैनो आई थी, तब घर में उस पर चर्चा भी हुई थी, लेकिन क्या पता था. मैंने रीमा से कहा, याद है तुम्हें. वो पीली वाली नैनो?
तो क्या चैट हमें चट जाने पर मजबूर कर रहा है. दूर वाले करीब आ रहे हैं और अपने दूर हुए जा रहे है. इससे अच्छा तो अपना गांव, मुहल्ला ही था. लेकिन डरता हूं. कंप्यूटर और नेट तो वहां पहुंच ही गए हैं. कहीं चैट और चटने का खेल भी न शुरू हो जाए.

जावेद अख्तर साहेब की दो लाइनें याद आ रही हैं. पर एक गुजारिश है, उन्हें मेरी नजर से देखिए, जावेद साहेब की नजर से नहीं.  
क्यूं जिंदगी की राह में मजबूर हो गए, इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए.