बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

पे-टेंट का पेटेंट

पेटेंट. अंग्रेजी भाषा का यह शब्द जब पहली बार सुना था, तब इसका ठीक-ठीक मतलब पता नहीं था. अच्छी तरह से याद है, पिताजी ने अपने तई समझाने की पूरी कोशिश की थी. तब उम्र बहुत कम थी, सो ज्यादा ‘विजुअलाइज’ नहीं कर पाया था. समय बीतता रहा. कभी बासमती, कभी तुलसी और कभी नीम के पेटेंट की खबरें कान में पड़ती रहीं. लोग बताते कि पेटेंट अमेरिका में ही होता है. उसके इस्तेमाल के लिए उनकी इजाजत लेनी होगी. यहां अपने देश में ऐसा कोई दफ्तर नहीं, जहां रजिस्ट्रेशन की तरह पेटेंट कराया जा सके.
वक्त बदला, हिंदुस्तान ने तरक्की की तो यहां भी पेटेंट होने लगा. अब गाहे-बगाहे किसी न किसी चीज के पेटेंट की खबर आ जाती है. एक दिन अचानक सोचने लगा कि अंग्रेजी भाषा का- पेटेंट- हिंदी व्याकरण के हिसाब से दो शब्दों पे और टेंट से मिलकर बना हो सकता है. हिंदी में इन दोनों शब्दों के अलग-अलग मायने देखें तो यही कि ‘भुगतान करो और छोलदारी या तंबू ले लो.’
अलगाववादियों, आतंकवादियों और उनके नए नवेले-संस्करण यानी नक्सलियों ने पेटेंट को शायद इसी तौर पर लिया. बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि पे-टेंट का उन्होंने पेटेंट करा लिया. यानी भुगतान भर की कुव्‍वत जुटाओ और अपनी छोलदारी ले लो. सिक्का कौन-सा चलेगा और छोलदारी कैसी होगी, अब यह तो उन्हें ही तय करना था. सो, तय हो गया कि जब किसी साथी को छुड़वाना होगा, किसी का अपहरण कर लेंगे. सरकार तो झुकेगी ही.
मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाली देश के गृहमंत्री की बेटी के अपहरण से शुरू हुए इस सफर ने सरकारी ‘बाबुओं’ तक का रास्ता तय कर लिया है. अब मामूली से मामूली आदमी या कामगार तक को सतर्क हो जाना चाहिए. न जाने कौन, कब, किसी की नजर में चढ़ जाए. न जाने कब, किस पर उनका ‘दिल आ जाए.’ हालांकि अगर ऐसा होता है, तो भी बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं. सरकार कोई न कोई इंतजाम जरूर करेगी. हां, अगर किस्मत रूपन कात्याल जैसी हुई, तो बात अलग है. याद है न, आईसी-814. बेचारा... उतने लोगों में बस वही अकेला था, जिसकी जान गई. उम्मीद है किस्मत और किसी के साथ सौतेला बर्ताव नहीं करेगी.
तकरीबन दो दशक पहले यानी 1989 के दिसंबर महीने में जब तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का कश्मीर में अपहरण हुआ, तो देश भर में सनसनी फैल गई थी. लोगों का लगा कि गृहमंत्री नहीं, देश की बेटी का अपहरण हो गया है. आतंकवादी उसका न जाने क्या हाल करेंगे? सत्ता के गलियारों में उस समय क्या हाल था, उसका तो बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है. आतंकवादियों ने कहा- बेटी चाहिए तो हमारे साथियों को रिहा करो. बस वहीं से शुरू हुआ झुकने-झुकाने का खेल. रूबिया तो आजाद हो गईं, पर बदले में हामिद शेख, मोहम्मद अलताफ, शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल जैसे पांच दुर्दांत आतंकियों को भी आजादी मिल गई. बहरहाल, बेटी घर लौटी, तो देश ने सुकून की सांस ली. भले ही उसके लिए कुछ भी करना पड़ा.
आतंकवादियों ने दस साल की खामाशी के बाद 1999 में एक बार फिर वही नुस्खा अपनाया. इस बार हत्थे चढ़े विमान यात्री. विमान सेवा आईसी-814 को पहले काठमांडू ले जाया गया, फिर उसमें सवार चालक दल समेत सभी 189 लोगों का अपहरण कर लिया गया. आतंकवादी विमान को कांधार ले जाने से पहले थोड़ी देर के लिए अमृतसर में रुके भी, पर सरकार सोई रही. कांधार हवाई अड्डे पर क्या तमाशा हुआ, तमाम लोगों को अच्छी तरह याद होगा. साथियों की रिहाई के लिए आतंकियों ने विमान यात्रियों को कई बार डराया-धमकाया. दिल्ली में सोती-जागती सरकार की स्थिति एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई वाली हो गई थी. समय बीत रहा था, पर यह तय नहीं हो पा रहा था कि करना क्या है? फिर याद आया- अरे जब एक बेटी के लिए झुक गए थे, तो 188 लोगों के भरे-पूरे परिवार के लिए तो .... वैसे भी हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां परंपराओं का विशेष महत्व है. फिर इस परंपरा का ध्यान भला क्यों नहीं रखते? सो 188 लोगों की जान में जान डालने के लिए केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को बाकायदा कांधार भेजा गया. आज सवाल पूछा जा सकता है कि जसवंत जी को जिन्ना प्रेम की प्रेरणा कहीं इसी यात्रा से तो नहीं मिली? लोग खुश, आतंकी भी खुश. मौलाना मसूद अजहर, अहमद जरगर और शेख अहमद उमर सईद जैसे साथी आजाद हो गए. अब अगर कात्याल की किस्मत खराब थी, तो उसमें किसी का क्या कसूर. फिर इसमें बुराई भी क्या है? गौर कीजिए, तो यही लगता है कि जब से सरकारों के साथ गठबंधन शब्द जुड़ा, झुकना रिवायत बन गई. वरना पहले तो एक पार्टी की सरकार ही हुआ करती थी.
इस बीच आतंकी और नक्सली डराने या आतंक पैदा करने वाली तमाम दूसरी वारदातों को तो अंजाम देते रहे, पर अपहरण की कोई ऐसी वारदात नहीं हुई, जो राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बनती. लोगों को चिंता होने लगी. पूरा दशक बीत गया तो लगा कि शायद कोई नया नुस्खा ईजाद कर लिया गया होगा. पर पिछले हफ्ते मलकानगिरी के जिला कलेक्टर विनील कृष्णा को नक्सलियों ने अगवा किया तो एक बार फिर से लगा कि अभी वह तकनीक पुरानी नहीं पड़ी है. और विनील की रिहाई के बाद तो नक्सलियों को भी ऐसा ही लगा होगा. उनकी सभी मांगें मान जो ली गई हैं.
अब या तो इस बात का इंतजार कीजिए कि कब किसी आतंकी या नक्सली की नजर में आपकी ‘कीमत’ अचानक बढ़ती है या फिर इस बात का कि वे कोई नया नुस्खा ढूंढ कर लाते हैं. पे-टेंट के ट्रैक रिकार्ड को देखकर तो फिलहाल यही लगता है कि उन्हें इसकी कोई जल्दी नहीं है.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तीसरी क्रांति!

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’- यह कहावत पुरानी जरूर है, पर इसे सीधे और सपाट तरीके से देखें तो यही लगता है कि यह न केवल सोलह आने सच है, बल्कि कभी पुरानी भी नहीं पडने वाली. यानी बात जब-जब निकलेगी, दूर तलक जाएगी. पर बात और आग ने कब दोस्ती कर ली? दोस्ती भी ऐसी, कि उसकी दुहाई दी जाने लगी. कहा जाने लगा कि बात निकलकर दूर तलक जा सकती है, तो आग क्यों नहीं? आग भभकेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.

आग मिस्र में लगी, उसने हुस्नी मुबारक को झुलसा दिया और लोग हैं कि एक-दूसरे को मुबारकबाद दे रहे हैं. वाह रे मुबारक साहेब! ऐसा तो कभी नहीं सोचा होगा आपने. आपके जलने और झुलसने का लोगों को जैसे शिद्दत से इंतजार रहा हो, तभी तो जश्न मना रहे हैं, मुबारकबाद दे रहे हैं. ऐसी कौन-सी गुस्ताखी हो गई, जिसका आपको ही पता नहीं लगा.

कहा जा रहा है कि मिस्र के लोग लोकतांत्रिक सुधारों की मांग कर रहे थे. भ्रष्टाचार से आजिज आ गए थे. अरे भाई, लोकतांत्रिक सुधार की इजाजत देते, उनको अमली जामा पहनाते तो काहे की दिक्कत आती. भ्रष्टाचार कुछ खास लोगों तक सीमित रहेगा तो हो-हल्ला मचेगा ही. सब भ्रष्टाचार कर रहे होते तो कुछ नहीं होता. सब मौज-मस्ती कर रहे होते. अमन चैन होता. आप भी खुश, लोक भी खुश. आखिर इतने सालों तक तो लोगों को आप अच्छे लग ही रहे थे.

आग का भी क्या कहा जाए. जंगल की आग..सॉरी, झाड़ी की आग की तरह जा गिरी खाड़ी में. ट्यूनीशिया तो पहले ही खाक हो चुका, मिस्र दहक रहा था, देखते ही देखते अरब भी चपेट में आ गया. यमन और जार्डन में भी तपिश महसूस की जाने लगी. वहां भी लोग भ्रष्टाचार से आजिज थे. वहां भी लोकतांत्रिक सुधारों की मांग हो रही थी. वहां पेट्रोल मौजूद था. कमी थी बस जलती तीली की. मिसाइल की तरह मिस्र से निकली आग, खाड़ी के पेट्रोल पर तीली की तरह जा गिरी.. फिर तो उसे भभकना ही था.

अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. झुलस रहे देशों से गुजारिश है कि हिंदुस्तान की तरफ देखें. हिंदुस्तान से बड़ा लोकतंत्र कौन-सा है. फिर यहां तो भ्रष्टाचार को भी बुरा नहीं माना जाता. इसमें शर्म काहे की. हिंदुस्तान से तो वैसे भी बहुत पुराना नाता रहा है. जब कभी प्राचीन सभ्यता की बात होती है, तो भारत के साथ-साथ मिस्र का जिक्र जरूर आता है. और मिस्र ही क्यों, खाड़ी के देश भी हिंदुस्तानियों के लिए दूर नहीं रहे. हजारों-लाखों हिंदुस्तानी वहां रहते हैं. इसी से वहां का असर यहां देखने को मिल रहा है. वहां पेट्रोल में आग लगी. यहां हिंदुस्तान में पेट्रोल नहीं, तो उसकी कीमतों में ही आग लगी जा रही है.

मान लो भइया, हिंदुस्तान को गुरू. हिंदुस्तानी तो पहले से मुगालता पाले हुए हैं कि उनके देश को ‘विश्व गुरु’ का दर्जा हासिल था. यह दीगर बात है कि भारत का लिखित इतिहास इसकी पुष्टि नहीं करता. हालांकि अभी भी जब-तब पढऩे-सुनने को मिल जाता है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत फिर से विश्व गुरू बनेगा.

भारत, खासतौर पर आधुनिक भारत के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले जानते हैं कि यहां पिछले दो सौ सालों में दो क्रांतियां हुईं. पहली-1857 में, जिसे इतिहासकारों ने ‘सैनिक’ (सिपॉय) शब्द तक सीमित करने में कोई कसर बाकी नहीं लगाई. इसमें खून-खराबा तो हुआ, पर यह क्रांति महज पुरानी दिल्ली तक सिमट कर रह गए आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की रियासत और तकरीबन तीन सौ सालों तक हिंदुस्तान पर राज करने वाली मुगलिया हुकूमत के खात्मे का सबब बनी. फिरंगी और दमदारी से यहां काबिज हो गए. और पूरे 90 सालों तक उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा.

दूसरी क्रांति के अगुवा बने जेपी यानी जयप्रकाश नारायण. 1974 में कांग्रेस सरकार के खिलाफ उन्होंने ‘समग्र’ क्रांति का नारा दिया. 1857 का सच जानने के लिए तो महज किताबें ही हैं, पर 1974 देखने वाले तो तमाम लोग तो अभी बुजुर्ग भी नहीं हुए हैं. उन सभी को याद होगा कि दूसरी क्रांति का क्या हश्र हुआ. थोड़े दिनों के लिए जरूर जनता की पार्टी यानी जनता पार्टी का शासन आया, पर चूंकि राज करने की उन्हें आदत नहीं थी, सरकार चलाने के लिए ‘जरूरी योग्यता’ नहीं थी, लिहाजा जल्द ही लोगों का मोह भंग हो गया. और फिर से आ गया इंदिराजी का राज. देश हित में वह बलिदान हो गईं तो राजीवजी आए. वह गए तो बीच में न जाने कितने आए-गए, तमाम लोगों को तो उनका क्रम भी ठीक से याद नहीं होगा. हां अटल जी ने जरूर अपनी यादें छोड़ीं. फिर सत्ता में आई संप्रग और उसके नेता बने मनमोहन सिंह.

अब इसे क्या कहा जाए कि जब एक तरफ मनमोहन सिंह के सत्ता में रहने का रिकार्ड गिनाया जा रहा है, तभी दूसरी तरफ मिस्र और खाड़ी देशों के हाल से लोगों का जोश उफान मार रहा है. मिस्र में तहरीर चौक पर टैंक और टैंक पर सवार जनता को लोगों ने टीवी स्क्रीन पर पिछले हफ्ते कई बार देखा. सडक़ पर टैंक देखकर चार-पांच साल पहले पड़ोसी देश नेपाल में हुई क्रांति की याद भी उनके जेहन में ताजा हो गई. हिंदुस्तानियों को लग रहा है कि तीसरी क्रांति का वक्त आ गया है. अब ‘संप्रग’ क्रांति होनी चाहिए. पर यह मिस्र नहीं, हिंदुस्तान है. यहां तो जिसके खिलाफ क्रांति होती है, वही और मजबूत होकर उभरता है. वैसे भी जिस देश की जनता का महज लाल पगड़ी देखकर ही गांव छोडक़र भाग जाने का इतिहास रहा हो, टैंक देखकर उसका क्या हाल होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. इसलिए संप्रगवालों, निश्चिंत रहिए. मौज-मस्ती कीजिए. भ्रष्टाचार को लोकाचार बने रहने दीजिए. अव्वल तो क्रांति होगी नहीं, और अगर होती भी है तो वह संप्रग के हित में ही होगी.