सूचना का अधिकार
क्रांति के पुरोधा अरविंद केजरीवाल ने अपने वर्षों के संघर्ष और सूबा दिल्ली के
हुक्मरानों की सूची में अपना नाम लिखवाकर, आम को दरअसल खास बना दिया। वरना, आम की
हैसियत तो गुठली जैसी हो कर रह गई थी।
आम को उसका वाजिब हक
दिलाने के लिए जब मुहिम की शुरुआत हुई तो हिमायतियों की पूरी फौज खड़ी हो गई। आम
और खास का फर्क मिट गया। फिर चाहे अन्ना हजारे हों या किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल
हों या मनीष सिसोदिया, जनरल वीके सिंह हों या फिर मेघा पाटकर, सब एक झंडे के नीचे
खड़े हो गए। दिल्ली के जंतर मंतर से फूटी धारा ऐतिहासिक रामलीला मैदान पहुंचते-पहुंचते
समंदर में तब्दील हो गई। कहा जाने लगा कि गंगा, यमुना में डुबकी लगाना बेकार,
बैकुंठ तो समंदर स्नान से ही मिलेगा।
भीड़ बढ़ी तो एक
रास्ता कम पड़ने लगा। फिर जिसको जो राह आसान लगी, वो उसी पर चलने लगा। अन्ना और
किरण बेदी को पुराना रास्ता ही ठीक लगा। हालांकि बीच-बीच में अन्ना के तृणमूल
कांग्रेस में और किरण बेदी के भाजपा में जाने की अफवाहें उड़ती रहीं। वीके सिंह भी
कुछ दिन अन्ना का साथ निभाते रहे, पर आखिरकार उन्होंने हाथ में कमल उठा लिया। अरविंद
केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने नई राजनीतिक पार्टी बना ली। दिल्ली के विधानसभा
चुनाव की वजह से जल्द ही उनके इम्तिहान का मौका आ गया। और वे कामयाब भी हुए।
गुलामी की मानसिकता
हमें विरासत में मिली है। सो, भारत में रहने के नाते ज्यादातर लोगों ने अंग्रेजी की यह कहावत
सुनी होगी-नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। यह
आम आदमी पार्टी यानी आप पर पूरी तरह फिट बैठती है। आप ने सूबा दिल्ली का ताज शीला
दीक्षित की उसी कांग्रेस की मदद से हासिल कर लिया, जिसके खिलाफ उसने जंग लड़ी थी।
फिर तो सारी बातें बेमानी हो गईं क्योंकि वे कामयाब जो हो गए थे। सबसे बड़ी पार्टी बन
कर उभरी भाजपा मन मसोस कर रह गई। बेचारे डॉ. हर्षवर्धन।
समूची मीडिया
बिरादरी आप की कामयाबी के करिश्मे से हैरान थी। तारीफ के पुल बांधने के लिए
अखबारों और खबरिया चैनलों में जगह कम पड़ने लगी। लेकिन बैसाखी पर टिकी सरकार आखिर
कितने दिन चलती। सात हफ्तों तक तमाम वायदे-घोषणाएं, लटके- झटके, धरना-प्रदर्शन चलते रहे। आप के चुनिंदा कामरेडों ने रेल भवन के सामने हाड़ कंपाने वाली ठंड में सड़क पर रात बिताई तो एक बारगी लगा कि गणतंत्र दिवस समारोह भी संपन्न हो पाएगा या नहीं। बात-बात
में जनता की अदालत में जाने का दम भरने वाले आम आदमी के नए मसीहा ने 49वें दिन सबको
अधर में छोड़कर पतली गली का रास्ता पकड़ लिया। लोगों को ऱणछोड़दास याद आने लगे। क्योंकि कांग्रेस ने तो कम से कम अपनी बैसाखी नहीं छीनी थी।
उनके आंधी की तरह
आने और तूफान की तरह जाने का अंदेशा किसी को नहीं था। शायद खुद आप को भी। वजूद बचा
रहे, तिलिस्म टूटने न पाए, इसके लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाई गई। अय्यारी का सहारा
लिया गया। फिर बिना पूरी तैयारी के ही आम चुनावों कूदने का फैसला हो गया। चर्चा
में बने रहने के लिए, राहुल गांधी के खिलाफ कुमार विश्वास को उतारा गया तो नरेंद्र
मोदी को चुनौती देने के लिए खुद मसीहा ही एक बार फिर से रणक्षेत्र में कूद गया।
महात्मा गांधी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक के वंशजों को साथ जोड़ा गया। अब आने
वाली 16 तारीख को आने वाले नतीजे साफ कर देंगे कि आम आदमी खास बना या फिर उसकी
औकात फिर गुठली जैसी हो गई।
सच कहें तो बात चाहे
आम की हो या आम आदमी की, दोनों खास बने हुए थे, लेकिन फिलहाल दोनों बहुत खऱाब दौर से
गुजर रहे हैं। यूरोपीय यूनियन ने आमों का राजा कहे जाने वाले अल्फांजो के आयात पर
प्रतिबंध लगा दिया है। अब आम आदमी की जमात में शामिल अल्फांजो आम की खेती करने
वाले किसान अपना सिर पकड़ कर रोएं तो अपनी बला से।
यह बात दीगर है कि यूरोपीय
यूनियन को यह बात समझ में आ गई कि विदेशी तो अल्फांजो का मजा लूटें और जहां वह
पैदा होता है, वहां के लोग उसके लिए लार टपकाएं, यह सही नहीं है। हिंदुस्तान के आम आदमी के लिए
कोई यूनियन ऐसा कब सोचेगी कहना मुश्किल है। फिलहाल जो लहर है, उसे देखते हुए
अंदाजा लगाना मुश्किल है कि आम आदमी का नया मसीहा बहकर किस किनारे लगेगा। कश्मीर
वाले अपने फारूक साहेब तो पहले ही कह चुके हैं कि मोदी को वोट देने वाले आम आदमी
को समंदर में डूब जाना चाहिए।