शनिवार, 25 अप्रैल 2015

पइसा मत फेंको, तमाशा देखो

भारत महान परंपराओं वाला देश है। तमाम परंपराओं की तरह अनादि काल से यहां तमाशबीन बने रहने की भी परंपरा रही है। लोग-बाग घर फूंककर तमाशा देखने जाते हैं। फिर तमाशा चाहे भालू का हो या बंदर का। सड़क पर हो या संसद के अंदर का। नेता का हो या अभिनेता का। भिखारी का हो या मदारी का।
तमाशा तो आखिर तमाशा है। तमाशा है, तो मजमा लगेगा ही। दोनों का जैसे चोली-दामन का साथ हो। हर तमाशे में यही होता है। डमरू कोई बजाएगा और खेल कोई और दिखाएगा। उस मजमें में भी वही हुआ, जो पिछले दिनों दिल्ली के जंतर-मंतर पर लगा था। मंच सजा था, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने के लिए। हजारों की भीड़ जुटी थी। झाड़ूबरदारों का एक तमाशा चल ही रहा था कि सामने नीम के पेड़ पर शुरू हुए एक दूसरे तमाशे ने मानो महफिल लूट ली।
तमाशे में शामिल होने के लिए राजस्थान के दौसा जिले से आए किसान बताए जा रहे गजेंद्र सिंह ने नीम के पेड़ पर चढ़कर अपने गले में गमछा बांध लिया और फिर कथित तौर पर सरेआम खुदकुशी कर ली। दूर-दूर से जुटाई गई किसान जमात तो खैर तमाशा देखने के लिए ही आई थी, पर हैरान कर देने वाली बात यह है कि जिम्मेदार आप बहादुर, मीडिया और पुलिस भी तमाशा देखने में मशगूल हो गई। गोया, ऐसा तमाशा पहले कभी देखा-सुना ही नहीं हो।
उसके बाद तो आरोप-प्रत्यारोप का जो खेल शुरू हुआ, उसका भी कोई सानी नहीं है। कोई सूबा दिल्ली पर हुकूमत करने वाली आम आदमी पार्टी को दोषी ठहरा रहा है, तो कोई आजाद भारत पर सबसे अधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी को। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी आरोपी होने से बच नहीं सकती। उसके दामन पर भी छींटे लगे हैं। सच तो यह है कि सब अपनी अपनी रोटी सेंकने में लगे हुए हैं।
उधर, जब से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश आया है, तब से देश भर के नेताओं में किसान नेता बनने की होड़ लग गई है। हमारा देश भले ही कृषि प्रधान हो, पर किसान नेता की कमी तो सालती ही है। किसानों के सर्वमान्य नेता चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत हमको अलविदा कह गए और चौ. अजित सिंह को किसान नेता मानने को कोई तैयार नहीं। सो किसान नेता की खाली कुर्सी पर कब्जे के लिए तलवारों पर सान चढ़ाई जा रही है। नारे गढ़े जा रहे हैं। रैलियां हो रही हैं। चाहे विपश्यना कर लौटे अपने युवराज हों या फिर दूसरी बार दिल्ली का तख्त संभाल रहे अपने धरना सम्राट। सबको बनना है किसान नेता। बह रही है गंगा, डुबकी लगा लो और बन  जाओ किसान नेता, ऐसा मौका फिर न मिलेगा।
और बेचारे किसान तो जैसे खुदकुशी करने के लिए ही पैदा हुए हैं। चाहे महाराष्ट्र के किसान हों या बुंदेलखंड के। कहीं कोई किसान कर्ज के बोझ तले दबे होने की चिंता में जान दे रहा है, तो कोई अपनी आंखों के सामने अपनी फसल की बर्बादी देखकर। और सोने पे सुहागा यह कि जब से नमो ने अपनी किस्मत पर इतराना शुरू किया, तब से कुदरत ने भी किसानों पर अपनी खास मेहरबानी दिखाने का सिलसिला शुरू कर दिया। बेमौसम बारिश से देश भर में रबी की फसल को कितना नुकसान पहुंचा है, अभी इसको लेकर जोड़-घटाना किया जा रहा है।
हां, कहीं कहीं मुआवजे की रस्म अदायगी भी शुरू हो गई है। अखबारों में कभी किसानों को बतौर मुआवजा दो रुपये देने की खबर आ रही है तो कभी 75 रूपये देने की। अब इन बावलों को कौन समझाए, मुआवजे की इतनी रकम से किसान कौन सा कोदो उखाड़ लेंगे। और अब जरा, मुआवजे की रकम तय करने वाले नेताओं की सोचिए। फसल की बर्बादी और मुआवजे की इत्ती सी रकम से जहां किसानों के दिल टूट रहे हैं, वहीं नेताओं के दिल मिल रहे हैं। बीजेपी और नमो की शक्ल तक से बिहार के जिस मुख्यमंत्री को नफरत हो गई थी, वही पूर्णिया और आस-पास के इलाकों में तूफानी बारिश के बाद बदले हालात में केंद्र सरकार की सक्रियता को लेकर नमो का गुणगान कर रहे हैं।
जंतर मंतर पर खुदकुशी करने वाले गजेंद्र के घरवाले भले ही उसे शहीद का दर्जा दिए जाने मांग कर रहे हों, लेकिन एक बात तो पक्की है कि जान भले किसी की गई हो, पर मौत आप बहादुरों की हुई है। शायद उन्हें इस बात का अहसास भी हो गया है। तभी तो सूरमा माफी मांग रहे हैं। भाई कितनी बार माफी मांगोगे। गलती करना तो आपकी नियति है। डैमेज कंट्रोल के क्रम में कोई झाड़ूबरदार आंसू बहा रहा है, कोई घर वालों के आंसू पोंछने का प्रहसन करते हुए 10 लाख का चेक लेकर जा रहा है। उधर, गजेंद्र के घर वाले हैं कि किसी को माफ न करने की कसम खाए हुए हैं।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, कानून बनकर अमल में आए या न आए, किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमे या न थमे, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि गजेंद्र ने जान देकर किसानों को फिर से सेंटर स्टेज पर ला दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि किसानों की चर्चा महज बुलबुला साबित होती है या फिर वास्तव में उनके अच्छे दिन आएंगे।