बुधवार, 23 जनवरी 2013

धर्म न पूछो दिग्गी का



जात न पूछो साधु की, यह कहावत तो मैंने बचपन में ही सुन ली थी, अब जबकि जवानी भी पीछे छूटती जा रही है, तब एक नई कहावत सुन रहा हूं, धर्म न पूछो दिग्गी का। दिग्गी तो आप समझ ही गए होंगे। वही कांग्रेस के दिग्विजय सिंह। राजा। राजाओं का वैसे भी कोई धर्म नहीं होता। न हिंदू, न मुस्लिम, न सिख न ईसाई, न यहूदी और न... । उन्हें बस राजधर्म निभाने की सीख दी जाती थी। राजधर्म से सभी राजा बंधे होते थे। पर जमाना बदला, तो राजधर्म के मायने भी बदल गए। अब हर राजा राजधर्म की अपने हिसाब से व्याख्या करता है। सीधे शब्दों में कहें तो राजधर्म के मामले में सहूलियत का समाजशास्त्र लागू होता है। जिसे जैसे सहूलियत हुई, उसने उसी हिसाब से राजधर्म तय कर लिया।
दिग्गी राजा पर लौटते हैं। लेकिन लौटने के लिए फिर एक पुरानी कहावत को सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूं। कहा जाता है, रस्सी जल गई, ऐंठ न गई। रियासतें तो देश की आजादी के साथ ही खत्म हो गई थीं। बची खुची शान इंदिरा गांधी के जमाने में प्रिवी पर्स के खात्मे के साथ चमक खो बैठी। लेकिन शायद, दिग्गी की तरह कई राजा किस्मत वाले थे, जिन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर एक बार फिर से राज करने का मौका मिला। सूबा मध्य प्रदेश निहाल हो गया, दिग्गी जैसा राजा पाकर। पर लोकतंत्र के जमाने में शासक वही होता है, जिसके पास जनादेश होता है। जनता जिसे चाहती है, उसे अपना राजा मानती है। जिससे मन भर गया, उसे कुर्सी से उतार दिया।
दिग्गी राजा की सूबेदारी चली गई, तो उन्होंने युवराज के यहां डेरा डाल दिया। अपने बड़बोलेपन से बहुत कम समय में दरबार में खासा दबदबा कायम करने में भी कामयाब रहे। सूबा-सूबा घूमने लगे। अब तो आलम यह है कि कुछ दिन शांत रहें, तो लोगों को बेचैनी होने लगती है। लोग सोचने लगते हैं, बोलने वाले राजा साहेब, चुप क्यों बैठे हैं। हालांकि जल्द ही अपनी चुप्पी तोड़कर राजा साहेब अपनी मौजूदगी का अहसास करा देते हैं। उन्हें अपना राजधर्म याद आ जाता है। दुनिया जिसे आतंकी नंबर एक मानती थी, उसकी मौत के बाद, राजा साहेब उसे ओसामाजी पुकारने लगे। फिर उन्हें लगा कि यह काम तो ओसामा के जिंदा रहते करना चाहिए था। सो अभी हाल में अपनी साहेब की पदवी से मोस्ट वांडेड हाफिज सईद को नवाज कर उन्होंने अपनी गलती सुधार ली।
आतंकियों को भी लगता होगा, कोई तो है, जो उन्हें सम्मान भरी नजरों से देखता है। उनके लिए जी और साहेब जैसे संबोधन का इस्तेमाल करता है। वैसे भी राजा के कद्रदानों की कमी नहीं है। राजा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि साहेब तो हाफिज सईद के साथ चला गया। अब सिर्फ राजा ही कहना पड़ेगा, बेशक उनके पास न सूबा है, न रियासत। बोलते रहिए, राजा, सियासत का यही तकाजा है।   

                                 

1 टिप्पणी:

  1. बड़े दिन बाद आपकी पोस्ट नजर आई हालांकि धार वैसी ही है पुरानी वाली लेकिन कम से कम पाक्षिक तो पडःअवाइए ही. , शानदार .

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