बुधवार, 28 दिसंबर 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है






सवा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी कांग्रेस पार्टी में भले ही, पिछले लगभग ढाई दशक से मौनी बाबाओं की तूती बोल रही हो, लेकिन मजेदार यह कि इन बाबाओं ने अपने पूरे राजनीतिक करियर में सबसे ज्यादा कोताही बोलने में ही बरती। 1991 से शुरू हुआ यह सिलसिला 2016 खत्म होने तक बदस्तूर जारी है। इस दौरान, कोई मुंह बंद कर मौनी बाबा बन गया तो कोई मुंह खोलकर राहुल बाबा। रह-रह कर मुंह खोलने और बचकानी बाते करने की मानो कसम खा चुके कांग्रेस के राजकुंवर को लोग शायद इसी वजह से पप्पू पुकारते हैं।

साल 1991 में ऐन आमचुनावों के बीच राजीव गांधी की हत्या के बाद, प्रधानमंत्री बने नरसिंह राव को देश वैसे तो कई वजहों से याद करता है, लेकिन आज भी उनको लेकर जेहन में जो तस्वीर उभरती है, वह मौनी बाबा की ही है। मौनी बाबा ने बतौर प्रधानमंत्री बेशक मुंह नहीं खोला, लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें याद करने की कोई और वजह नहीं। 1991 के आमचुनावों में कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। बावजूद इसके, मौनी बाबा ने, महज जोड़-तोड़ की बाजीगरी के बूते पूरे पांच साल बेलौस-बेखौफ राज किया। बाबा का मौन तो उस समय भी नहीं टूटा, जब भगवा ब्रिगेड पूरे जतन से अयोध्या में ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर रहा था। यह दीगर बात है कि कई भाषाओं के जानकार मौनी बाबा को देश की आर्थिक आजादी का मसीहा कहा जाता है। आज भी देश में जब कभी आर्थिक उदारीकरण की बात होती है, मौनी बाबा याद किए जाते हैं।

तकरीबन एक दशक बाद, 2004 में कांग्रेस को देश की कमान संभालने का एक बार फिर जनादेश मिला। उस वक्त कोई भी कांग्रेसी मौनी बाबा का नाम जुबान पर नहीं लाना चाहता था, पर उन्हीं मौनी बाबा की देन मनमोहन सिंह को कांग्रेस ने मौके की नजाकत भांपते हुए सिर-आंखों पर बिठाया। आज्ञाकारी बालक की तरह मनमोहन सिंह ने भी बड़की अम्मा की हर बात में हां मिलाई। अपने ज्ञान से दुनिया भर के अर्थविज्ञानियों का मन मोहने वाले सरदार बहादुर को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद मौन मोहन बनने तक का सफर तय करने में कोई पांच साल का वक्त लगा। उसके बाद तो लोग उन्हें मनमोहन की मौन मोहन कहकर ही पुकारने लगे।

पांच साल बाद यूपीए-2 के दौरान देश में घोटाले दर घोटाले होते रहे, पर मौन मोहन दम साधे रहे। कभी कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला चर्चा में रहा, तो कभी टू जी घोटाला मीडिया की सुर्खियां बना। अलबत्ता, कोयला आवंटन के मुद्दे पर जब विपक्ष मे उन्हें कटहरे में खड़ा किया तब जरूर उन्होंने उर्दू के एक लाजवाब शेर के साथ अपनी चुप्पी तोड़ी;
"हज़ारों जवाबों से अच्छी है ख़ामोशी मेरी,
न जाने कितने सवालों की आबरू रखे."।
यानी यहां भी वह उन्होंने अपनी खामोशी को वाजिब ठहराया। यूपीए-2 के दौरान पूरे पांच साल तक राजनीतिक हलकों में मौन मोहन की खूब खिल्ली उड़ी, पर सियासी विरोधियों पर शब्द बाण चलाने का कोई भी वाकया खोजे नहीं मिलता। ऐसे में मौन मोहन को देश का सबसे चुप्पा प्रधानमंत्री कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। शायद यही वजह थी कि 2014 के आमचुनावों में जब कांग्रेस 50 का आंकड़ा भी नहीं पार कर पाई, तो राजनीतिक पंडितों को यह लिखते-कहते देखा-सुना गया कि मौन मोहन ने बहुत शालीन और चुप-चाप तरीके से कांग्रेस के साथ 1984 के सिख दंगों का हिसाब चुकता कर लिया। उन्होंने पार्टी को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि उसके किसी सांसद को नेता विपक्ष का पद तक मिले।
दोनों मौन ब्रतियों के राजनीतिक अवसान (एक का निधन और एक राज्यसभा में महज सांसद) के बाद कांग्रेस पार्टी में राहुल बाबा का उदय हुआ। अब इसे संयोग कहिए या कुछ और, राहुल बाबा भी कमोबेश मौन मूर्तियों की राह पर बढ़ चले हैं। अव्वल तो वह बोलते नहीं और जब कभी मुंह खोलते हैं, तो अपनी ही पार्टी के लोगों की बोलती बंद करा देते हैं।
अभी पिछले दिनों राहुल बाबा ने सड़क पर ऐलान किया कि अगर संसद में उन्होंने मुंह खोला तो देश में भूकंप आ जाएगा। सारा देश रिक्टर स्केल पर उस भूकंप की तीव्रता नापने के लिए तैयार बैठा था, पर बुरा हो संसद सत्र का, जिसमें उन्हें बोलने का मौका नहीं मिला। लोगों के भूकंप की तीव्रता नापने के अरमान धरे रह गए। लेकिन एक तरह से यह अच्छा ही हुआ क्योंकि अगर भूकंप आता तो एक बार फिर देश के आपदा प्रबंधन विभाग की पोल खुलती। भारी जन-धन की हानि होती सो अलग।
हालांकि जल्दी ही वह दिन भी आ गया, जब राहुल बाबा को मुंह खोलने का मौका मिल गया। संसद न सही, नरेंद्र मोदी का गढ़ माना जाना वाला गुजरात का मेहसाणा ही सही। वहां जनसभा में मौजूद लोगों को राहुल बाबा आयकर विभाग के कुछ दस्तावेज दिखाते हुए बोले-छह महीने में सहारा ने मोदी को नौ बार पैसे दिए। इसका सारा ब्योरा सहारा वालों की डायरी में दर्ज है। पर मेहसाणा की जनता को कौन कहे, देश के बहुतायत लोगों को उनकी बात में कुछ भी नया नजर नहीं आया। शायद इसकी एकमात्र वजह यह थी कि वह भूकंप लाने वाले जिस खुलासे का दावा ठोक रहे थे, वह पिछले एक महीने से मीडिया में है।
यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी इस मामले में एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई हो चुकी है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस मामले में दो टूक टिप्पणी की कि फिलहाल जो सबूत हैं, उनके आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यानी राहुल बाबा का भूकंप का दावा महज हवा हवाई साबित हुआ। शायद इसी बहाने उन्हें संसद में बोलने की अहमियत का अंदाजा लग गया हो।
कभी खून की दलाली का बेतुका जुमला, कभी अपने भाषण से भूंकप लाने की गीदड़ भभकी और कभी मोदी के भ्रष्टाचार की जानकारी का सबूत होने का दावा, राहुल बाबा के इस तरह बयान कहीं न कहीं इस धारणा को मजबूत करते हैं कि वह बिना कुछ सोचे समझे बोलते हैं और तो और, उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं रहती कि मुंह खोलेंगे तो खुद उनका ही माखौल उड़ेगा। इससे तो बेहतर यही होता कि वह पिछले करीब ढाई दशक से चली आ रही मौन मूर्तियों की परंपरा को और आगे बढ़ाते या नई ऊंचाई पर पहुंचाते।
साल 1974 में एक अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी और प्राण अभिनीत एक फिल्म आई थी, कसौटी। बाक्स आफिस की कसौटी पर न सिर्फ वह फिल्म खरी उतरी, बल्कि उस एक गाना-हम बोलेगा तो बोलेगो कि बोलता है-भी सुपर हिट हुआ था। अब राहुल बाबा के शानदार प्रदर्शन के आधार पर लोग उन्हें पप्पू बोलें, तो उसमें गलत क्या। दुनिया चाहे कुछ भी बोले, हम कुछ नहीं बोलेंगे, क्योंकि हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है...................

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