सोमवार, 4 अप्रैल 2011

पटरी नहीं दिलाती मंजिल

रेल की पटरी मंजिल तक पहुंचा देती है. यह सत्य है. लेकिन यह आप पर है कि इसे अर्ध सत्य समझते हैं या पूर्ण सत्य. मैं तो इसे अर्ध सत्य मानता हूं. अलबत्ता, ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है, जो इसे पूर्ण सत्य मानते हैं. अखबारों में ऐसी खबरें महीने में एक-दो बार पढ़ने को जरूर मिल जाती हैं कि पूरे परिवार ने रेल की पटरी पर जान दे दी. विवाहिता या फिर किसी युवक का शव पटरी पर पड़ा मिला. वे जान देने आए थे, जान दे दी. उन्हें मंजिल मिल गई.

एक पहेली बचपन से सुन रहा हूं.लोग पूछते हैं पहले मुर्गी आई या अंडा. कोई कहता है पहले मुर्गी आई तब अंडा, कोई कहता है पहले अंडा आया, मुर्गी उसी में से निकली. अब यह न पूछिएगा कि इस पहेली का यहां क्या मतलब है. वैसे, मैं बताए दे रहा हूं. यह कोई पहेली नहीं कि रेल की पटरी पहले आई या ट्रेन. निश्चित तौर पर पहले ट्रेन आई और उससे भी पहले आया इंजन. भाप की ताकत पहचानी जेम्स वाट ने, स्टीवेंसन ने बनाया इंजन. पटरी का नंबर तो सबसे बाद में आया. मंजिल दिल्ली हो या कोलकाता. मुंबई हो या गोरखपुर ट्रेन पहुंचा देती है.

पिछली सदी के आखिरी दशक में बोतल से दो जिन्न निकले थे. पहले को जितने लोगों को लीलना था, लील कर खामोश हो गया, बचा रह गया दूसरा. जो आग तब उसके मुंह से निकली थी, वह रह-रह कर जब-तब भड़कती रहती है. कोई भरोसा नहीं कि किसको लील लेगी. सरकार रेवड़ी बांटकर आग बुझाने की कोशिश करती है. जिसको मिल जाता है, वह शांत हो जाता है, जिसे नहीं मिलता, वह जीना हराम कर देता है. बुरा हो सरकारी रेवड़ी का. उसने ऐसी आदत खराब की कि गाहे-बगाहे लोगों की उसके लिए लार टपकने लगती है. हर कोई चाहता है कि रेवड़ी उसे भी मिल जाए.

बात यहीं तक रहती तो ठीक था, पर रेवड़ी को तो हक मान लिया गया, इससे किसी को इंकार नहीं कि हक मांगना चाहिए. आसानी से न मिले तो छीन भी लेना चाहिए, लेकिन दूसरों का सुख चैन छीनने का हक तो किसी को नहीं.

रेवड़ी के लिए 20 साल पहले जो आपाधापी शुरू हुई थी, उसका सिलसिला थमा नहीं है. दो साल पहले राजस्थान का आंदोलन भूला नहीं होगा. लोगों का आना-जाना मुहाल हो गया था. रेल लाइनें ठिकाना बन गई थीं. अब किसी को दिक्तत हुई हो, तो हो. उनकी बला से. उन्हें क्या, उन्हें तो बस हक चाहिए था.

याद कीजिए.पिछले साल दिसंबर का आखिरी हफ्ता. कितने ही लोगों का गांव-घर जाकर सर्दियों की छुट्टी मनाने का सपना, सपना ही रह गया. कोई नए साल के जश्न में शामिल नहीं हो पाया, तो कोई इलाज के लिए दिल्ली-मुंबई के बड़े अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाया. न जाने कितने लोगों ने दम तोड़ दिया. इसके अलावा न जाने किसके-किसके क्या-क्या जरूरी काम रह गए, इसका कोई हिसाब नहीं है. कई दौर की वार्ता के बाद ही रेल की पटरियां खाली हो सकी थीं.

पर यह क्या.अभी दो महीने बीते ही थे कि अचानक काफूरगंज सुर्खियों में आ गया और सबका सुखचैन काफूर कर गया. रेल की पटरियां फिर बन गईं ठिकाना. दादी-ताई तो वहीं चूल्हा चौका ले आईं. पटरी पर रोटियां सिंकते तो टीवी पर देखा ही होगा. दादा, ताऊ वहीं गुड़गुड़े खींचने लगे. वहीं लग गई चौपाल. वहीं बैठे-बैठे दिल्ली का हुक्का- पानी बंद करने की धमकी दी जाने लगी.

सरकार कान में तेल डालकर बैठी थी. लोगों का तेल निकला जा रहा था. 13 दिनों तक रेल की पटरी बंधक बनी रही. अच्छा हुआ कि हाईकोर्ट बीच में आ गया, और लट्ठ पर डंडा भारी पड़ा. हम अदालती डंडे की बात कर रहे हैं. वह पुरानी कहावत तो सुनी ही होगी. वही तेरहवीं वाली. अदालत को शायद वह याद आ गई थी, सो उसने तेरहवें दिन तेरहवीं करा दी. अगले कुछेक घंटों में रेल की पटरी आजाद हो गई.

यह बात अच्छी तरह समझ ली जानी चाहिए कि लोग जिसे पूर्ण सत्य समझ रहे हैं, वह अर्ध सत्य है. पूर्ण सत्य यह है कि पटरी पर बैठने-लेटने या चलने से मंजिल नहीं मिलती. रेल की पटरी, ट्रेन के चलने के लिए बनी है. और ट्रेनें ही मंजिल तक पहुंचाती हैं. जब तक ट्रेन नहीं होगी, तब तक मंजिल नहीं मिलेगी. इसलिए बेहतर है, वह ट्रेन तलाशी जाए, जो मंजिल तक पहुंचा सके. पटरी पर सोने, जागने से लोग सिर्फ परेशान होंगे. बाकी किसी को कुछ नहीं हासिल होने वाला.


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