मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मोदी करे तो साला कैरेक्टर ढीला है.

सद्भावना मिशन के नाम पर तीन दिनों तक चले उपवास ने, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर भाजपा (जिस पार्टी से मोदी ताल्लुक रखते हैं) की सेहत पर कितना असर डाला यह तो बाद में पता लगेगा, पर इसमें कोई विवाद नहीं कि इसने, देश की सभी पार्टियों और उनके प्रमुख नेताओं को किसी न किसी तरह प्रभावित जरूर किया.
मोदी ने अपने उपवास को सद्भावना मिशन नाम दिया, पर ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है जिनके लिए वह नौटंकी, तमाशा या राजनीतिक शोशेबाजी से अधिक, कुछ नहीं था. कहा जा रहा है कि हाई प्रोफाइल उपवास के बहाने मोदी ने अपने पाप धोने की कोशिश की. 2002 में हुए गुजरात दंगों में उनकी भूमिका को देश का बुद्धिजीवी और प्रगतिशील तबका इसी नाम से पुकारता है. पर मेरे हिसाब से उपवास के बहाने, मोदी ने शुद्ध रूप से राजनीति की- उपवास की राजनीति. मोदी राजनेता हैं. उस लिहाज से राजनीति उनका धर्म-कर्म है, और होना भी चाहिए. इसमें बुराई कहां है? राजनेता अगर राजनीति नहीं करेगा तो और क्या सब्जी बेचेगा?
राजनीति में सब कुछ जायज माना जाता है. फिर चाहे वह परदे के पीछे हो या सरेआम. मोदी ने उपवास की राजनीति की. बाकायदा डुगडुगी पिटवाई, देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया और उस बहाने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे. कम से कम इसमें किसी को ऐतराज नहीं होगा कि लगातार तीन दिनों तक देश भर की मीडिया में वह छाए रहे. इसने साबित कर दिया कि आप मोदी को पसंद कर सकते हैं, उनसे नफरत कर सकते हैं, लेकिन उनकी अनदेखी नहीं कर सकते.
एक बात समझ में नहीं आई कि उपवास मोदी करने जा रहे थे, लेकिन दूसरों के पेट में ऐंठन क्यों हो रही थी? सबसे पहले मोदी के राजनीतिक गुरु से विरोधी बने शंकर सिंह बाघेला की बात करते हैं. मोदी के उपवास का ऐलान उन्हें हजम नहीं हुआ. सो उन्होंने उपवास का जवाब उपवास से ही देने का फैसला किया. यह तो अच्छा हुआ कि मोदी ने कोई और अनुष्ठान नहीं लिया था, वरना बाघेला साहब के लिए मुश्किल हो जाती. बहरहाल अपने उपवास की कामयाबी के लिए उन्होंने तंबू-कनात लगवाया, दंगा पीडि़तों की भीड़ जुटाई, हरेन पांड्या के परिजनों को बुलाया. इसके अलावा, और भी जो कुछ कर सकते थे, किया. क्या बाघेला साहब इस बात से इंकार कर सकते हैं कि यह सब राजनीति नहीं थी.
हालांकि बाघेला साहब को अब तक हिंदी की यह कहावत समझ में आ जानी चाहिए थी कि गुरु गुड़ ही रह गए, चेला शक्कर हो गया. सीधा-सा मतलब है कि उन्हीं से राजनीति का ककहरा सीखने वाला उनका शिष्य अब बहुत आगे निकल चुका है. अब उससे होड़ करने का कोई मतलब नहीं. मोदी को जहां देश भर में जाना-पहचाना जाता है, वहीं गुरुजी के सामने अपने गृह प्रदेश के बाहर पहचान के संकट से जूझने का खतरा है. गुजरात के बाहर और राजनीति में रुचि रखने वालों के अलावा कम ही लोग उन्हें जानते-पहचानते हैं. अगर मेरी बात पर यकीन नहीं तो खुद ही पता कर लीजिए.
मोदी के अनशन से सामाजिक कार्यकर्ता और मशहूर नृत्यांगना मल्लिका साराभाई का भी हाजमा खराब हो गया. मल्लिका जी, आप बेकार ही राजनीति में पांव पसार रही हैं. मैं तो कहूंगा, अभी भी मौका है, ज्यादा देर नहीं हुई है. उसी काम में मन लगाइए, जिसने आपको इतनी शोहरत दिलवाई. कम से कम उसमें कीचड़ लगने का तो खतरा नहीं है. वैसे आपका रिपोर्ट कार्ड यही बताता है कि राजनीतिक ता ता-थैया के लिए अभी और रियाज की जरूरत है. बहरहाल, अपने वकीलों को घूस देने का जो जुमला आपने उछाला है, वह पहली नजर में काफी बचकाना लगता है. अलबत्ता, इस बात के लिए आपको धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि आपने अपने तई पूरी राजनीति करने की कोशिश की. अच्छा है, अनुभव काम आएगा.
अब जरा पार्टियों की बात करते हैं. तथाकथित सेकुलर पार्टियां तो भाजपा को सांप्रदायिक कहती ही हैं, देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कांग्रेस भी इस मामले में पीछे नहीं रहना-दिखना चाहती. और बात जब भाजपा के सबसे सांप्रदायिक चेहरे यानी नरेंद्र मोदी की हो तो फिर भला कौन चुप रहता है. कांग्रेस को गुजरात दंगों के दर्द का तो अहसास है, लेकिन 1984 के सिख दंगों का भूत अब उसे परेशान नहीं करता. उसे उसने भूत यानी पास्ट मान लिया है. उसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका तो नजर आती है, लेकिन सिख दंगों के लिए वह किसी कांग्रेसी नेता को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं. अब यह राजनीति नहीं तो और क्या है?
अब जरा गैर कांग्रेसी पार्टियों की बात करें. अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता के अलावा, शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल जैसे राजग के कई सहयोगी दल जहां मोदी के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े दिखे, वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू के स्वनामधन्य नेता शरद यादव इस पूरे प्रकरण से किनारा किए हुए थे. उन्हें अपने वोट बैंक की चिंता सताए जा रही थी. लेकिन मोदी की उपवास की राजनीति का यही तकाजा था और सबने अपने अपने हिसाब से राजनीति की भी. फिर ऐसा क्यों कि कांग्रेस करे तो ठीक, नीतीश करें तो ठीक, बाघेला करें तो ठीक, मल्लिका करें तो ठीक, पर मोदी करे तो साला कैरेक्टर ढीला है.
(ब्‍लॉग में व्‍य‍क्‍त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, इनका द संडे इंडियन की संपादकीय नीति से कोई लेना-देना नहीं है)

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