रविवार, 11 सितंबर 2016

राजकुमार की पीके और युवराज के पीके

सन् 2014 को पीके का साल कहें, तो कुछ गलत नहीं होगा। उस साल राजकुमार (हिरानी) निर्देशित पीके ने सिने जगत में कामयाबी का झंडा बुलंद किया, तो तब मोदी के रहे पीके (प्रशांत किशोर) ने सियासत की दुनिया में बतौर रणनीतिकार सफलता का नया इतिहास रचा। एक पीके को आमिर खान का सहारा मिला, तो दूसरे पीके के सहारे मोदी, प्रधान मंत्री बन गए। ये दीगर बात है कि मोदी खुद को प्रधान सेवक कहना/कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं।

 बॉक्स ऑफिस पर पीके की कामयाबी के बाद, राजकुमार के बारे में कहा जाने लगा कि वह जो न करें, कम है। 2014 में जब पीके रिलीज हुई, तब धर्म एक अहम मुद्दा बनकर समाज में छाया हुआ था। उस दौरान धर्म के बड़े-बड़े आढ़ती, रास से दूर कारावास में रात काली कर रहे थे। धर्म की अतिसंवेदनशीलता से बेपरवाह पीके ने उस समय के समाज का हाल बखूबी बयान करते हुए धर्म के आढ़तियों की बखिया उधेड़ दी। पीके यह साबित करने में सौ फीसदी कामयाब रही कि समाज में दो तरह के भगवान हैं। एक वो जो इनसान बनाते हैं, और दूसरे वो, जो इनसान को बनाते हैं।

कुछ इस तरह का हाल 2014 में देश के राजनीतिक क्षितिज का भी था। चारों तरफ निराशा छाई हुई थी। तकरीबन रोज नए घोटाले की खबरों से आजिज जनता कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को पानी पी-पी कर कोस रही थी। तब के पीएम, जनता का मन मोहने में पूरी तरह नाकामयाब हो गए थे। और ज्यादातर लोग युवराज (राहुल गांधी) के हाथ देश की कमान सौंपने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। मानो उन पर किसी को भरोसा ही न हो। देश चलाने के लिए जनता सत्तारूढ़ पार्टी के साथ-साथ युवराज का भी पूरी शिद्दत से विकल्प तलाश रही थी।

 और ठीक उसी समय सियासी मैदान के दूसरे किनारे पर मोदी का उदय हो रहा था। लोगों को उनमें उम्मीद की नई किरण नजर आ रही थी। पीके ने मोदी के चुनाव अभियान को रफ्तार देने के लिए सिटिजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (सीएजी) की परिकल्पना की। और उसके बाद मिली कामयाबी की कहानी ज्यादातर लोगों को आज भी याद है। मोदी की पार्टी को जहां पूर्ण बहुमत मिला, वहीं आमचुनावों में कांग्रेस पहली बार अर्धशतक भी नहीं बना पाई।

 लेकिन पीके को इतने से भला कहां संतोष होने वाला था। महज साल भर बाद 2015 में पीके और सीएजी के उनके कुछ साथियों ने आई-पीएसी (इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) नाम से नई कंपनी खोल कर बिहार विधानसभा चुनाव के लिए काम करना शुरू कर दिया। इस बार पीके जिस शख्सियत के पीछे खड़े थे, उसे मोदी का प्रतिद्वंद्वी नंबर वन माना जाता है। पीके की रणनीति का एक बार फिर तब डंका बजा, जब महागठबंधन ने बीजेपी के गठबंधन को चारों खाने चित कर दिया।

बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा कर राजकुमार की पीके जहां इतिहास बन गई, वहीं बॉक्स बैलेट वाले पीके कामयाबी की नित नई इबारत लिख रहे हैं। हिंदुस्तान की मौजूदा सियायत में चाणक्य का दरजा हासिल कर चुके पीके को सबसे कामयाब राजनीतिक रणनीतिकार माना जा रहा है। बरास्ते मोदी, नीतीश कुमार चहल-कदमी करते हुए वह फिलहाल युवराज के पीछे पूरी दमदारी से खड़े हैं। सियासी पंडितों की मानें तो पीके ही युवराज के डी फैक्टो राजनीतिक सलाहकार भी हैं। मीडिया में आई खबरों के मुताबिक उन्हें साल 2019 तक होने वाले सभी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की डगमगाती नैया पार लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, हालांकि सबसे ज्यादा जोर यूपी के विधानसभा चुनाव पर है।

 पीके की सलाह पर ही अभिनेता से नेता बने राज बब्बर को यूपी कांग्रेस की कमान सौंपी गई। अब यह तो वक्त बताएगा कि वह अपना नाम सार्थक करते हुए राज दिलाएंगे या फिर बब्बर की तरह सिर्फ चिघ्घाड़ लगाते रह जाएंगे। पीके के कहने पर ही शीला दीक्षित को यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भावी सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया। इस सवाल के जवाब का भी इंतजार है कि क्या 82 साल की शीला, सवा सौ साल से भी ज्यादा उम्र की कांग्रेस को यूपी में उसकी जवानी याद दिला पाएंगी।

 यूपी विधानसभा चुनाव की तैयारी के सिलसिले में, पीके की सलाह पर युवराज ने पिछले दिनों सूबा उत्तर प्रदेश के रूद्रपुर में खाट पंचायत की। दिलचस्प यह कि खबरिया चैनलों/ अखबारों/सोशल नेटवर्किंग साइटों पर पंचायत की कम और खाट की ज्यादा चर्चा हुई। और हो भी क्यों न। कांग्रेस की खोई जमीन वापस पाने के लिए दिल्ली से न सिर्फ युवराज रूद्रपुर पहुंचे, बल्कि श्रोताओं के लिए जो खाट बिछाई गई, उन्हें भी खासतौर पर दिल्ली से ट्रकों में लादकर लाया गया था। रैली में शामिल हुए लोग भी बेहद निष्ठावान निकले, खाट पर बैठकर युवराज का प्रवचन सुना, और पंचायत खत्म होने के बाद निशानी के तौर पर खाट साथ लेते गए। अब ये तो सरासर नाइंसाफी है कि पंचायत में बिछी खाट पर बैठने का मजा लो और उसके बाद युवराज की ही खाट खड़ी कर दो।

लेकिन पीके कोई मामूली रणनीतिकार तो हैं नहीं, सो किसानों को खुश करने के लिए युवराज के हाथ में एक नया मंत्र थमा दिया है, हम जीते तो कर्जा माफ और बिजली का बिल हाफ। मंत्र नहीं चला तो कोई बात ही नहीं, और चल गया यानी जीत भी गए तो क्या जनता का सपना पूरा करना जरूरी है। हमें याद है, 2014 में पीके ने मोदी के हाथ- अच्छे दिन आएंगे- का मंत्र थमाया था। मोदी तो सत्ता में आ गए, लेकिन जनता अच्छे दिन आने का अभी इंतजार कर रही है। और मुझे इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता। कुछ लोग सपनों के सौदागर होते हैं। उनका काम सिर्फ सपना दिखाना है। सपने को हकीकत में बदलने से उनका कोई वास्ता नहीं होता।

 वैसे भी बड़े-बड़े बोर्ड लगाकर शर्तिया इलाज का दम भरने वाले जब आज तक किसी की जवानी वापस नहीं दिला पाए तो फिर ये तो सियासत है, जहां किसी तरह की कोई शर्त नहीं होती। यहां सिर्फ वादे होते हैं। और यह गीत तो हम सबने सुन रखा है-कसमें, वादे, प्यार, वफा सब, बाते हैं बातों का क्या।

यूपी विधानसभा चुनाव पीके के लिए खास मौका बन कर आया है। इसमें अगर पास हो गए तो प्रमोशन पाकर उन्हें महाराज के पीके बनने में देर नहीं लगेगी। फिर वो पारस पत्थर बन जाएंगे, यानी जिसे छू लिया, वही सोना।

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