शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चैट और चट

1.सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बेटी ने कहा, अरे पापा, कल मेरी फ्रेंड अनुष्का ने शादी कर ली. दोनों एक ही हॉस्पिटल में हैं. एकदम चट मंगनी, पट ब्याह. मुझे तो फोन पर अभी उसकी मम्मी ने बताया.

2. शाम को घर लौटा तो रीमा (पत्नी) बोली, तुम शू वगैरह निकालो, मैं जरा मिसेज वर्मा को देखकर आती हूं. दोपहर में चोट लग गई थी. बस चट गए, पट आए.

3.रात में डाइनिंग टेबल पर बैठा तो बेटा बोला, आज मेरे दो दोस्त आए थे, हम लोगों सारे बिस्कुट चट कर गए. मम्मी ने बहुत डांटा, आप कल और ला दीजिएगा पापा.

4. अरे यार, हर हफ्ते ये संडे क्यों आ जाता है. दिन भर घर में बैठे-बैठे चट जाता हूं.मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तीनों एक साथ बोले. दिन भर कंप्यूटर से चिपके  रहते हो, चैट करते हो तब कुछ नहीं होता. एक दिन घर में हो तो चट गए. वाह ये क्या बात हुई. वाकई बहुत निराला है चट.

मैं सोचने लगा. बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. घर से बाहर दिन भर, जितने लोगों से मिल लो. सोशल नेटवर्किंग कर लो, चैट कर लो. लेकिन पूरे दिन घर में... बहुत मुश्किल है. बोर हो जाता हूं. चट जाता हूं.

ऑफिस में दोस्तों से यह सब शेयर किया कहने लगे. बिल्कुल यार.पर हम लोगों ने कभी गौर ही नहीं किया. बात बिल्कुल ठीक है. ऐसा क्यों हो रहा है. पहले तो नहीं होता था. चैट किया तो ठीक, घर में रहे तो चट गए.

जैसे-जैसे हमारा दायरा बढ़ रहा है, दुनिया सिमट रही है. अनजाने, अनचिह्ने करीब आ रहे हैं, दूरियां घट रही हैं, पर अपने दूर होते जा रहे हैं. क्या जमाना था, जब गांव-जवार या मुहल्ले भर के लोग एक-दूसरे को जानते-पहचानते थे. उनके सुख-दुख में शामिल होते थे. दुनिया भर में घूम नहीं सकते थे, हजारों मील दूर बैठे लोगों से बात-चीत आसान नहीं थी, सो लोगों ने अपनी दुनिया बना ली थी. बेशक वह छोटी थी, पर बिल्कुल अपनी. दायरा जरूर छोटा था, पर दिल बड़ा. लोग मगन रहते थे. बाहर जाना अच्छा नहीं माना जाता था.

कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले हम जैसे ज्यादातर लोग अभी २०-२५ साल पहले तक तमाम पुरानी मान्यताओं से जैसे बंधे हुए थे. गोरखपुर में एक बुजुर्ग रिक्शेवाले से बातचीत होने लगी. मैंने कहा- इस उम्र में भी रिक्शा चलाते हैं दादा. आपके बच्चे वगैरह नहीं हैं क्या. लेकिन जवाब सुनकर हैरान रह गया. कहने लगा. बाबू- लडिक़ें त चार हैं, लेकिन एक ठो पुरान कहनाम है- थोर पढि़हें त हरे से जइहें, अ ढेर पढिहें त घरे से जइहें-(कम पढ़ेंगे तो हल नहीं चलाएंगे, ज्यादा पढेंगे तो घर से बाहर चले जाएंगे). एहि से हम नहीं पढ़ाए. सोचने लगा कि घर से बाहर न जाने के लिए सबने पूरा इंतजाम कर रखा है.

धर्म शास्त्रों में भी समुद्र पार करने से मना किया गया है, यानी विदेश गए तो धर्म भ्रष्ट. लेकिन समय ने शायद यह मान्यता ही बदल दी. धर्म से तो लोग दूर हुए, पर भ्रष्ट को आचरण के साथ जोड़ लिया. और दोनों मिलकर कब भ्रष्टाचार  बन गए, किसी को पता ही नहीं लगा.

गांव-शहर छूटा, लोग महानगर की राह पकडऩे लगे. कोई पढ़ाई करने, कोई कमाई करने. वे जब छुट्टियों या शादी-मुंडन के मौके पर आते तो बताते- दिल्ली-बंबई में कोई पड़ोसी को भी नहीं पहचानता. मुहल्ले की बात कौन करे. हम सोचते, ऐसा कैसे हो सकता है. एक ही बिल्डिंग में रहते हैं. आमने- सामने दरवाजा होता है. पर कह रहे हैं कि पड़ोसी को नहीं जानते-पहचानते. तब लगता था कि जो लोग बाहर चले जाते हैं, वो कुछ ज्यादा ही ऊंची बातें करने लगते हैं. जरूर झूठ बोलते हैं.

पर जब खुद दिल्ली आया, तो लगा कि सचमुच ऐसा होता है. हम लोग तब ये सब समझ नहीं पाते थे. पड़ोसी की तो न तब किसी को परवाह थी, न अब है. पर वाह रे जमाना! अब तो रिश्तेदार भी फोटो से पहचाने जा रहे हैं, भला हो सोशल नेटवर्किंग साइटों का, जो फोटो दिख जाती है. वेब कैम से पता लग जाता है कि रिंकू-मोनी अमेरिका में क्या कर रही हैं. मुलाकात न सही, पर बात तो हो जाती है. दूरी घटी है, इसमें शक नहीं. अमेरिका और भारत के बीच. न्यू जर्सी और गोरखपुर के बीच, दिल्ली और न्यूयार्क के बीच पर. दायरा बढ़ा है. पर सोचता हूं उनके बारे में, जो सोशल नेटवर्किंग साइट पर नहीं हैं, जो कंप्यूटर लिटरेट नहीं हैं, उन्हें कोई कैसे पहचाने. अब तो कोई पोस्ट आफिस भी नहीं जाता. डाकिए तक को नहीं पहचानता.

दो साल पहले इलाहाबाद में एक शादी में बेबी दीदी से मुलाकात हुई तो बताने लगीं, मेरा बेटा दिल्ली में ही रह रहा है. पिंटू ने अभी नैनो ली है. बहुत सुंदर गाड़ी है. मयूर विहार में रहता है. फ्लैट नंबर ... अरे यह मेरे घर के पास ही है. कॉलोनी में पहली बार नैनो आई थी, तब घर में उस पर चर्चा भी हुई थी, लेकिन क्या पता था. मैंने रीमा से कहा, याद है तुम्हें. वो पीली वाली नैनो?
तो क्या चैट हमें चट जाने पर मजबूर कर रहा है. दूर वाले करीब आ रहे हैं और अपने दूर हुए जा रहे है. इससे अच्छा तो अपना गांव, मुहल्ला ही था. लेकिन डरता हूं. कंप्यूटर और नेट तो वहां पहुंच ही गए हैं. कहीं चैट और चटने का खेल भी न शुरू हो जाए.

जावेद अख्तर साहेब की दो लाइनें याद आ रही हैं. पर एक गुजारिश है, उन्हें मेरी नजर से देखिए, जावेद साहेब की नजर से नहीं.  
क्यूं जिंदगी की राह में मजबूर हो गए, इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए.

1 टिप्पणी:

  1. आनंद सर चट और चैट को लेकर एक संवेदनशील टिप्पणी के लिए शुक्रिया। वाकई हम अब करीबियों से दूर और दूरस्थ के करीब हो रहे हैं, जो बेहद खतरनाक ट्रेंड है।

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