गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे


आज हिंदी दिवस है। स्वतंत्रता दिवस अभी दो महीने पहले ही बीता है और गणतंत्र दिवस आने में तीन-चार महीने की देरी है। आप सोच रहे होंगे कि हिंदी दिवस से बात शुरू हुई थी, ये स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस बीच में कहां से आ गए। दरअसल, अपने हिंदुस्तान में जिसको विशिष्ट सम्मान देना हो, जिसे श्रद्धासुमन अर्पित करने हों, उसका दिवस मनवा देने की परंपरा है। कैसी स्वतंत्रता और कैसा लोकतंत्र, यह तो आप जानते ही हैं, अपनी हिंदी का भी कुछ वैसा ही हाल है। जहां आजादी से दम घुटता हो, लोकतंत्र के मंदिरों की कार्यवाही शर्मसार करती हो, वहां हिंदी कैसे हिंदुस्तान के माथे की बिंदी हो सकती है। हिंदी हमें शर्मसार करती है और लोगों को हमपर हंसने का अवसर भी मुहैया कराती है। लोग हंसे भी क्यों न, हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे।
हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर हम ऐसी ही एक घटना के साक्षी बने। शाम के करीब साढ़े छह बज रहे थे। करीब 10-12 हिंदी भाषी सहकर्मियों की उपस्थिति में एक देवी का प्रवेश हुआ। परिचय देने के क्रम में उन्होंने जो पहला वाक्य बोला, उससे लगा कि वह देशज हैं, देसवाली है, घर की हैं। अपनी माटी की खुशबू भी महसूस हुई। यहां दिल्ली में कोई अपने जैसा दिख जाए, तो बड़ी खुशी होती है। लगता है कोई और अपना मिल गया। दूसरे वाक्य में तो उन्होंने खुद को हम सबका पड़ोसी साबित कर दिया। हममें से ज्यादातर लोगों की रिहाइश यमुना पार है। देवी भी शायद वहीं वास करती हैं। अब यह सवाल मत उठाइएगा कि देवी के आगे जी क्यों नहीं लगाया, यहां तो आम आदमी को भी सम्मान देने के लिए उसके नाम, पद या रिश्ते में जी लगाते हैं। फिर वह तो देवी ठहरीं। असल में, उन्हें ...जी, ...जी, ...जी, ....जी, ...जी, ...जी, ....जी जैसे संबोधन डाउन मार्केट यानी देसी लगते हैं। उन्होंने कहा भी मुझे जी लगाना मुझे बहुत खराब लगता है। इसका क्या मतलब है। तभी लगा कि देसी माटी वाली खुशबू फ्लेवर्ड है। तब तक यह भी समझ चुका था कि उन्हें देवी समझ कर गलती कर रहा हूं, वो तो डिवा हैं। क्या करूं, ऐसी गलती हो ही जाती है। हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे।
अंग्रेज चले गए, औलाद छोड़ गए। बचपन में इस जुमले का मतलब समझ में नहीं आता था। धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि इसका आशय अंग्रेजों के मानस पुत्र -पुत्रियों (एसीज) से है। इस देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जिन्हें लगता है कि दुर्भाग्य से भारत में पैदा हो गए। बेचारे। अनफार्चुनेटली बार्न इन इंडिया। मैं इन जैसों को यूबीआइज कहता हूं। जो रहते हिंदुस्तान में हैं, खाते हिंदी की हैं, और गुणगान मैभा महतारी (सौतेली मां) का करते हैं। जबकि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बोली, समझी जाती है हिंदी। मैं तो अपने पाकिस्तानी साथियों से हिंदी में ही बात करता हूं। देसी डिवा ने बहुत गर्व से कहा, मैं तो अंग्रेजी में लिखती हूं। उसका हिंदी में अनुवाद होता है, जिसे देखकर मुझे बड़ी हंसी आती है। लगता ही नहीं कि जो लिखा था, वह यही है। हंसी आनी भी चाहिए। हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे। कोई हिंदी की रोटी खाता है, हिंदी को खरी खोटी सुनाता  है, यह कहने में गर्व अनुभव करता है कि मेरे दिमाग में विचार भी अंग्रेजी में ही आते हैं। और हम चुपचाप सुनते रहते हैं। उनके लिखे का अनुवाद करते रहते हैं। वो तो अच्छा है कि कुछ अंग्रेजीदां न केवल हिंदी बोलने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि समझने और लिखने की भी। उन जैसों से हिंदी को बहुत उम्मीद है।
आजादी मिले छह दशक से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन ज्यादातर हिंदुस्तानियों की मातृभाषा, फिलहाल राजभाषा का ही दर्जा हासिल कर पाई है। हिंदी दिवस पर एक बार फिर देशभर में आयोजनों की रस्म अदायगी होगी। संकल्प लिए जाएंगे। लेकिन हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान तभी मिल सकता है, जब हमपर हंसने वालों को करारा जबाव मिलेगा। जब हिंदी कुलीनों और संभ्रांतों की भाषा बने। जब हिंदी बोलने में लोग शर्म नहीं महसूस करें। जब यूबीआइज को खुद को एफबीआई (फार्चुनेटली बार्न इन इंडिया) बताने में गर्व करें। हिंदुस्तान में हिंदी को नीचा समझने वाले, नीचा दिखाने वाले जब तक अपनी गलती का अहसास नहीं करेंगे, हिंदी की दुर्दशा होती रहेगी। हम देखते रहेंगे। हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे। अगर यही हाल रहा, हम मौनी बाबा बने रहे, चुपचाप अपनी हंसी उड़वाते रहे, तो बाल दिवस पर नेहरू जी (हम तो जी लगाएंगे ही) की तस्वीर पर माला पहनाने जैसा ही रिचुअल हमें हिंदी दिवस पर हिंदी के साथ करना पड़ेगा। संभव है, हिंदी को माला पहनाने का अवसर मेरे जीवनकाल में न आए, लेकिन मझे पूरा यकीन है कि आने वाली पीढ़ियां जरूर उस ऐतिहासिक क्षण की साक्षी बनेंगी।

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